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निर्णय में न्याय 

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विवरण: इस सवाल पर एक संक्षिप्त अंतर्दृष्टि कि न्याय का दिन क्यों है, और इस्लाम के अलावा अन्य धर्मों का अंत क्या है। 

  • द्वारा Laurence B. Brown, MD
  • पर प्रकाशित 04 Nov 2021
  • अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
  • मुद्रित: 0
  • देखा गया: 451 (दैनिक औसत: 1)
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"पहले प्रभाव को अच्छा बनाने के लिये आपको दूसरा मौका कभी नहीं मिलता"

                                                           -पुरानी कहावत 

इस जीवन के बाद की दुनिया (परलोक) में सच्चा विश्वास करने में एक पुरुस्कार है। अविश्वास का भी है, लेकिन … वह आपको नहीं चाहिए। यह संदेश सभी पैगंबरों का है - हर एक का।  

हम यहाँ के जीवन के बाद के जीवन को कैसे उचित ठहराएँ? सोचिए, इस जीवन के अन्यायों को और सुधारा भी कहाँ जा सकता है, यहाँ के बाद की दुनिया के सिवाय? इस सांसारिक जीवन में हम कुछ बातों को अगर अन्याय समझते हैं तो वह ईश्वर के न्यायनिष्ठ होने के ऊपर संदेह पैदा करेगा अगर इन 'अन्यायों' का दूसरी दुनिया में पुरुस्कार और दंड के रूप में समुचित प्रतिदान न मिले। कुछ बुरे से बुरे लोग सबसे अधिक विलासिता के जीवन का आनंद उठाते हैं। साथ ही, कुछ अच्छे से अच्छे लोग बहुत कष्ट उठाते हैं। उदाहरणार्थ, किस पैगंबर को आसान जीवन मिला? किस पैगंबर ने माफ़िया बॉस, नशे के व्यापारी या किसी तानाशाह शासक के जैसा शानदार वैभवशाली जीवन बिताया, चाहे वह किसी भी समय के रहे हों? अगर हमें अपने सर्जक की दया और न्याय पर भरोसा करना है तो हम यह नहीं मान सकते कि वह इस सांसारिक जीवन में की गई प्रार्थनाओं के लिये पुरुस्कार और गलतियों के लिये दंड नहीं देगा, क्योंकि यह स्पष्ट है कि इस जीवन में अन्याय और असमानता है।   

तो एक दिन फैसले का होगा, हम सब वहाँ होंगे, और तब वह सही समय नहीं होगा यह सोचने का कि अब हम अच्छे के लिये जीवन बदल लें। क्योंकि… अब हमें उसी जीवन के साथ वहाँ रहना होगा … क्योंकि हमारा जीवन तब समाप्त हो चुका होगा। तब बहुत देर हो चुकी होगी। हमारे कामों का दस्तावेज़ तैयार हो चुका होगा। अब पीछे लौटने का कोई प्रश्न नहीं रहेगा।   

मानव जाति को उसके विश्वास और कर्मों के आधार पर छाँट दिया जाएगा। आस्थावान सही ठहराए जाएंगे, नास्तिकों को तिरस्कृत किया जाएगा, पापियों को (अगर क्षमा नहीं किया गया तो) उनके पाप की गंभीरता के अनुपात में दंडित किया जाएगा।

यहूदी 'चुनिंदा लोगों' के लिये स्वर्ग उनका जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं, ईसाई मानते हैं "दोषमुक्त नहीं हैं पर क्षमा कर दिया जाए" और मुस्लिम समझते हैं कि जो अपने निर्माता की सेवा करते हुए मरे हैं वे मुक्ति के पात्र हैं। जिन्होंने अपने समय के उपदेशों और पैगंबरों का अनुसरण किया है वे सफल होंगे, और जिन्होंने अपने समय के उपदेशों और पैगंबर को त्याग दिया उन्होंने अपनी आत्मा के साथ समझौता किया।  

इस्लाम के अनुसार, आस्था रखने वाले यहूदी तब तक सही राह पर थे जब तक उन्होंने अपने उन पैगंबरों को नकार नहीं दिया (यानी, दीक्षा गुरु जॉन और जीसस क्राइस्ट) जिनकी शिक्षाओं को वे मानते थे,और जीसस ने उन्हें जो उपदेश दिया। इस तरह यहूदियों ने ईश्वर को उसकी  शर्तों पर मानने के बजाय अपनी  शर्तों पर माना। जब ईश्वर ने पैगंबर और उपदेश भेजे जो उन्हें पसंद नहीं आए, तो उन्होंने ईश्वर के अनुसार चलने के बजाय अपने पुरखों के धर्म में बने रहना उचित समझा। इस तरह वे अविश्वास और अवज्ञा के दोषी हुए।

इसी तरह जीसस के अनुयायी तब तक सही राह पर थे जब तक उन्होंने अंतिम पैगंबर (मुहम्मद) को नकार नहीं दिया। जीसस के अनुयायियों ने ईश्वर के प्रति समर्पण किया, लेकिन अपनी शर्तों पर। और वह काफी नहीं था। जब उनसे अंतिम उपदेश (यानी पवित्र क़ुरआन) को और उस पैगंबर को जिसने वह बताया, मानने के लिये कहा गया, उन्होंने उसे नकार दिया और अपने यहूदी भाइयों की तरह उसी अविश्वास और अवज्ञा के दोषी हुए। 

मुस्लिमों के अनुसार, सत्य का धर्म सदा से केवल इस्लाम रहा है (यानी ईश्वर की इच्छा के आगे सर झुकाना), और यही सभी पैगंबरों ने सिखाया भी है। लेकिन, इस्लाम का परिष्कृत रूप अंतिम उपदेश और अंतिम पैगंबर की शिक्षाओं में मिलता है। अंतिम उपदेश का रहस्योद्घाटन करके ईश्वर ने पिछले सभी  धर्मों और उपदेशों को निरस्त कर दिया। इसलिए आज के समय में जो समूह ईश्वर के धर्म के आगे समर्पण करता है वह केवल मुस्लिम हैं। जो इस्लाम के बारे में जानते हैं, और उसे नकार देते हैं, उनका तिरस्कार किया जाएगा। जो इस्लाम के बारे में जानते हैं, और जान बूझकर धर्म को पढ़ने की जिम्मेदारी से बचते हैं, उनको भी तिरस्कृत किया जाएगा। लेकिन जो इस्लाम को न जानते हुए या जान बूझकर उसके बारे में छान बीन किए बिना ही मर जाते हैं उनकी निर्णय के दिन परीक्षा ली जाएगी, यह जानने के लिये कि अगर उन्हें पता होता तो वे क्या करते। और इस आधार पर, ईश्वर उन पर निर्णय लेंगे।   

इस तरह, अगर इस बात की कल्पना की जा सकती है कि ऐसे यहूदी हैं जो बाद में आने वाले पैगंबरों को जाने बिना ही मर गए, और जो ईसाई मुहम्मद और पवित्र क़ुरआन को जाने बिना मर गए, उनका तिरस्कार नहीं किया जाएगा। बल्कि ईश्वर उनका इस आधार पर निर्णय लेंगे कि जो उपदेश उनके जीवन में उजागर हुए उनका उन्होंने क्या पालन किया, और उनकी आस्था और आज्ञाकारिता की परीक्षा लेंगे। ऐसा ही उनके साथ होगा जो उपदेश से अनजान मर गए। इसलिए वह अनजान लोग जो सत्य के धर्म को ईमानदारी से सीखने का प्रयत्न कर रहे थे उनके लिये मोक्ष की आशा है, जबकि निष्ठारहित लोगों के लिये कोई आशा नहीं है, भले ही वे शिक्षित क्यों न हों।

कॉपीराइट © 2007 लॉरेंस बी. ब्राउन; आज्ञा सहित प्रयुक्त 

उपरोक्त उद्धरण डॉ. ब्राउन की आने वाली पुस्तक गोडेड, से लिया गया है, जिसका उसके बाद की पुस्तक मिसगोडेड  के साथ ही प्रकाशन की आशा है। दोनों पुस्तकें डॉ. ब्राउन की वेब साइट www.LevelTruth.com. पर देखी जा सकती हैं।  डॉ. ब्राउन से BrownL38@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

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