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इस्लाम धर्म का आधार इन दो वाक्यांशों की गवाही देना है:
(i) ईश्वर के सिवा कोई पूजा के लायक नही है (ला इलाहा इल्लल्लाह), और
(ii) मुहम्मद ईश्वर के दूत (पैगंबर) हैं (मुहम्मद-उर-रसूल-उल्लाह)।
इस वाक्यांश को शहादह या आस्था की गवाही कहा जाता है। इन दो वाक्यांशों पर यकीन करने और इनकी गवाही देने से व्यक्ति इस्लाम में प्रवेश करता है। यह विश्वासियों का सिद्धांत है जिसे वे जीवन भर बनाए रखते हैं, और यह उनकी सभी मान्यताओं, पूजा और अस्तित्व का आधार है। इस लेख में इस गवाही के पहले भाग पर चर्चा करेंगे।
जैसा कि पहले बताया गया है, यह गवाही इस्लाम धर्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि यह तौहीद या ईश्वर की अखंडता और विशिष्टता पर विश्वास करने का दावा है, जिसके ऊपर पूरा धर्म बना है। इसीलिए इसे "तौहीद की घोषणा" कहते हैं। ईश्वर की अखंडता और विशिष्टता के कारण सिर्फ उसकी ही पूजा होनी चाहिए और उसके ही आदेशो का पालन होना चाहिए। इस्लाम धर्म मूल रूप से जीवन जीने का एक तरीका है जिसमें एक व्यक्ति सिर्फ ईश्वर की पूजा करता है और सिर्फ उसके ही आदेशो का पालन करता है। यह एकमात्र सच्चा एकेश्वरवादी धर्म है, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि ईश्वर के अलावा किसी की पूजा नही होनी चाहिए। इस कारण से हम देखते हैं कि कई कथनों में पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने कहा कि जो कोई भी इस वाक्यांश को पढ़ता है और इस पर अमल करता है वह अनंत काल के लिए स्वर्ग में जाएगा, और जो कोई भी इसका विरोध करेगा वह अनंत काल के लिए नरक की आग में डाला जाएगा।
यह घोषणा व्यक्ति के जीवन के उद्देश्य को भी बताता है, जो है केवल एक ईश्वर की पूजा करना, और किसी व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू होता है। क़ुरआन में ईश्वर कहता है:
"और मैंने जिन्नों और इंसानों को सिर्फ अपनी पूजा के लिए पैदा किया है।" (क़ुरआन 51:56)
इस घोषणा में तौहीद का संदेश सिर्फ इस्लाम के लिए नहीं है। इस संदेश के महत्व, वास्तविकता और सच्चाई के कारण इस संदेश को सभी पैगंबर लेकर आये थे। मानवजाति की शुरुआत के बाद से, ईश्वर ने प्रत्येक समुदायों और राष्ट्रों के लिए दूत भेजे, और उनको आदेश दिया कि सिर्फ ईश्वर की पूजा करो और सभी झूठे देवताओं को अस्वीकार करो। ईश्वर कहता है:
"और वास्तव में हमने हर समुदायों में एक दूत भेजा और उन्हें आदेश दिया कि ईश्वर की पूजा करो, और सभी झूठे देवताओं को अस्वीकार करो..." (क़ुरआन 16:36)
जब तौहीद की यह धारणा किसी व्यक्ति के दिल और दिमाग में पूरी तरह बैठ जाएगी, तभी वे स्वेच्छा से ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करेगा और केवल उसी की पूजा करेगा। इसलिए पैगंबर मक्का में तेरह साल तक अपने लोगों को सिर्फ एकेश्वरवाद पर विश्वास करने को कहते रहे, और उस समय बहुत कम पूजा अनिवार्य थी। जब यह धारणा विश्वासियों के दिलों में पक्की हो गई और वे इसके लिए अपनी जान भी देने को तैयार हो गए, तब इस्लाम के अधिकांश अन्य आदेश आए। यदि ये आधार नही है, तो इसके बाद किसी भी चीज़ का कुछ फायदा नही है।
ला इलाहा इल्लल्लाह का शाब्दिक अर्थ है "अल्लाह के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।" इस घोषणा का तात्पर्य यह है कि यद्यपि दुनिया में मनुष्य कई अन्य देवताओं और भगवानो की पूजा कर सकता है, उनमें से किसी को भी पूजा का अधिकार नही है, जिसका अर्थ है कि एक सच्चे ईश्वर के सिवा ईश्वर के रूप में मानी जाने वाली किसी भी वस्तु को पूजा का कोई अधिकार नहीं है और न ही वो इसके लायक है। इस प्रकार, ला इलाहा इल्लल्लाह का अर्थ है, "अल्लाह के सिवा कोई भी अन्य ईश्वर पूजा के लायक नही है।"
ये दो शब्द किसी भी सृजित प्राणी की पूजा करने के अधिकार को नकारते हैं। मुसलमान ईश्वर के अलावा किसी भी चीज की पूजा करने को अस्वीकार करते हैं। यह अस्वीकृति सभी अंधविश्वासों, विचारधाराओं, जीवन के तरीकों, या किसी भी आधिकारिक व्यक्ति के लिए है जो दैवीय भक्ति, प्रेम, या पूर्ण आज्ञाकारिता का दावा करता है। क़ुरआन में ईश्वर ने कई जगहों पर उल्लेख किया है कि लोग ईश्वर के सिवा जिस चीज़ की भी पूजा करते हैं वो किसी भी पूजा के लायक नही है, और न ही उसे इसका कोई अधिकार है, क्योंकि वे स्वयं रचना है और वो आपको कोई फायदा नहीं पहुंचा सकते।
"और उन्होंने ईश्वर के अलावा अनेक पूज्य बना लिए हैं, जो किसी चीज़ की उत्पत्ति नहीं कर सकते और वे स्वयं उत्पन्न किये जाते हैं और न वे अपने लिए किसी हानि या किसी लाभ का अधिकार रखते हैं, न ही मौत और न जीवन और न पुनः जीवित करने का अधिकार रखते हैं। (क़ुरआन 25:3)
कुछ लोग किसी अन्य वस्तु या प्राणी की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इसके पास कुछ विशेष शक्ति है, जैसे कि ब्रह्मांड पर कुछ नियंत्रण, लाभ या हानि पहुंचाने की कुछ शक्ति, या यह कि इसकी महानता के कारण यह अपने आप में पूजा का पात्र है। ईश्वर इस धारणा को नकारते हैं कि लोग जिन चीजों की पूजा करते हैं वो अपने आप में कोई शक्ति रखते हैं चाहे वे प्रकृति के पहलू हों, जैसे हवा, पेड़, पत्थर; या सचेत प्राणी, जैसे मनुष्य, पैगंबर, संत, देवदूत, या राजा। ये स्वयं उपासकों की तरह सिर्फ रचनाएं हैं और उनमें स्वयं की सहायता करने की भी शक्ति नहीं है, और इसलिए इनकी पूजा नहीं की जानी चाहिए। ये ईश्वर की इच्छा के अधीन सिर्फ रचनाएं है जिनमे कमिया हैं, और इसलिए ये किसी भी पूजा के लायक नही हैं।
वास्तविकता में बहुत से लोग ईश्वर के परम नियंत्रण और शक्ति में विश्वास करते हैं, लेकिन वे सोचते हैं कि ईश्वर का दिव्य साम्राज्य सांसारिक साम्राज्य की तरह ही है। जिस तरह एक राजा के पास कई मंत्री और भरोसेमंद सहयोगी होते हैं, वे 'संत' और छोटे देवताओं को ईश्वर के लिए अपना मध्यस्थ मानते हैं। वे उन्हें वो एजेंट मानते हैं जिनकी कुछ पूजा और सेवा करके ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। ईश्वर कहता है:
"और यदि आप उनसे पूछें कि 'आकाशों और धरती को किसने पैदा किया?'
तो वे अवश्य कहेंगे कि 'ईश्वर ने।'
आप कहिये कि 'तुम बताओ, जिसे तुम ईश्वर के सिवा पुकारते हो, यदि ईश्वर मुझे कोई हानि पहुंचाना चाहे तो क्या ये उस हानि को दूर कर सकता है? या ईश्वर मेरे साथ दया करना चाहे, तो क्या ये रोक सकते हैं उसकी दया को?'
आप कह दें कि 'मेरे लिए ईश्वर पर्याप्त है और उस पर भरोसा करने वालों (यानी विश्वासियों) को उसी पर भरोसा करना चाहिए।'" (क़ुरआन 39:38)
वास्तव में इस्लाम में कोई मध्यस्थ नही है। किसी भी धार्मिक व्यक्ति की पूजा नही करनी चाहिए और न ही किसी अन्य व्यक्ति की पूजा करनी चाहिए। एक मुसलमान अपनी सभी पूजा विशेष रूप से सिर्फ ईश्वर के लिए करता है।
किसी भी सृजित प्राणी की पूजा करने के अधिकार को नकारने के बाद, शहादह केवल ईश्वर के लिए देवत्व की पुष्टि करता है, '...ईश्वर के सिवा'। ईश्वर द्वारा इस बात को नकारने के बाद कि सृष्टि की किसी भी चीज़ में लाभ और हानि पहुंचाने की शक्ति है और इसलिए कोई पूजा के योग्य नहीं है, क़ुरआन मे कई जगहों पर ईश्वर कहता है कि सिर्फ उसकी पूजा की जानी चाहिए क्योंकि उसके पास पूरे ब्रह्मांड का नियंत्रण और स्वामित्व है। यह केवल ईश्वर ही है जो अपनी सृष्टि की देखभाल करता है; वह पूरा नियंत्रण रखता है। सिर्फ वही है जो लाभ और हानि पहुंचा सकता है, और वो जो कुछ भी करना चाहे उसे करने से कोई नहीं रोक सकता। इस प्रकार वह अपनी पूर्णता से, अपनी परम शक्तियों से, अपने कुल स्वामित्व के कारण, और अपनी महानता के कारण सभी पूजा, सेवा और उपासना के लायक है।
"उनसे पूछोः ‘आकाशों तथा धरती का पालनहार कौन है?’
कह दोः 'वह ईश्वर है।'
कहो: ‘कि क्या तुमने ईश्वर के सिवा देवता बनाया है, जो अपने लिए किसी लाभ और हानि का अधिकार नही रखता है?’
उनसे कहोः ‘क्या अन्धा और देखने वाला बराबर होता है या अन्धेरे और प्रकाश बराबर हैं? या उन्होंने ईश्वर का साझी बना लिया है ऐसों को जिन्हें ईश्वर ने बनाया है, अतः उत्पत्ति का विषय उनपर उलझ गया है?’
आप कह दें: 'कि ईश्वर ही प्रत्येक चीज़ को पैदा करने वाला है और वही अकेला प्रभुत्वशाली है।'" (क़ुरआन 13:16)
ईश्वर यह भी कहता है:
"तुम तो ईश्वर के सिवा बस मूर्तियों की पूजा कर रहे हो, और तुम झूठ फैला रहे हो। वास्तव में, जिन्हें तुम ईश्वर के सिवा पूज रहे हो, वे अधिकार नही रखते हैं तुम्हे जीविका देने का। अतः सिर्फ ईश्वर से जीविका मांगो और सिर्फ उसकी ही पूजा करो, उसका आभार व्यक्त करो। और तुम्हे सिर्फ उसी के पास वापस जाना है।" (क़ुरआन 29:17)
और ईश्वर कहता है:
"ये वो है जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया और तुम्हारे लिए आकाश से जल उतारा, फिर हमने उससे उगा दिया सुंदरता और आनंद से भरे अद्भुत बाग़, तुम्हारे बस में न था कि उगा देते उसके वृक्ष, तो क्या कोई पूज्य है ईश्वर के सिवा? नहीं, लेकिन वे ऐसे लोग हैं जो ईश्वर के बराबर बताते हैं!" (क़ुरआन 27:60)
चूंकि ईश्वर ही एकमात्र ऐसा है जो पूजा के योग्य है, उनके अलावा या उनके साथ किसी को पूजना गलत है। भक्ति के सभी कार्य केवल ईश्वर के लिए ही करने चाहिए। सभी चीज़ें उनसे ही मांगनी चाहिए। अज्ञात का सारा भय ईश्वर से होना चाहिए, और सारी आशा उन्हीं से होनी चाहिए। सभी दिव्य प्रेम ईश्वर के लिए होने चाहिए, और जो लोग उनसे नफरत करते हैं, ईश्वर के लिए ऐसे लोगों से नफरत करनी चाहिए। सभी अच्छे कर्म ईश्वर की कृपा और ख़ुशी के लिए करने चाहिए और उनके लिए सभी गलत कामों से बचना चाहिए। इन तरीकों से मुसलमान सिर्फ एक ईश्वर की पूजा करते हैं, और इससे हम समझते हैं कि कैसे इस्लाम का पूरा धर्म तौहीद की इस घोषणा पर आधारित है।
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