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मोक्ष की राह इस अडिग विश्वास में है कि केवल एक ही ईश्वर है और वह बहुत क्षमाशील है और सबसे अधिक दयावान है। इस्लाम में बिल्कुल स्पष्ट कहा है कि मनुष्य की उत्पत्ति के मूल में पाप जैसी कोई अवधारणा नहीं है और ईश्वर को मानव जाति के पापों और अपराधों को क्षमा करने के लिये किसी के बलिदान की आवश्यकता नहीं है ।
“कहो:"ओ मेरे सेवकों जिन्होंने अपनी सीमाओं का उल्लंघन किया है (बुरे काम और पाप करके)! ईश्वर की दया के प्रति निराश न हो, निस्संदेह, ईश्वर सभी पाप क्षमा कर देता है। सच में, वह बहुत क्षमाशील और सबसे दयालु है।” (क़ुरआन 39:53)
गलतियाँ करना, ईश्वर के प्रति हमारी आज्ञाकारिता में गिरावट आना, उसे भूल जाना, और पापलिप्त हो जाना मानव जाति के त्रुटिपूर्ण स्वभाव का अंग है। कोई मनुष्य पाप से मुक्त नहीं है, चाहे हम कितना ही अच्छा दिखाई दें और हर मनुष्य को ईश्वर की क्षमा की जरूरत होती है। पैगंबर मुहम्मद, ईश्वर की कृपा और आशीर्वाद उन पर बने रहें, इस बात को अच्छी तरह जानते थे जब उन्होंने अपने साथियों से यह कहा।
“जिनके हाथों में मेरी आत्मा है, अगर तुमने पाप नहीं किया ईश्वर तुम्हें हटा कर और ऐसे लोगों को लाएंगे जो पाप करेंगे और फिर क्षमा के लिये प्रार्थना करेंगे।”[1]
“आदम का हर बेटा पाप करता है और पाप करने वालों में सबसे अच्छे वे हैं जो पश्चाताप करते हैं।”[2]
हम सभी कमज़ोर हैं, हम सभी पाप करते हैं, और हम सभी को क्षमा की आवश्यकता है। हमारे अंदर ईश्वर से निकटता अनुभव करने की नैसर्गिक आवश्यकता होती है और ईश्वर ने अपनी अपार बुद्धिमत्ता से क्षमा का मार्ग काफ़ी सुगम बना दिया है। पैगंबर मुहम्मद को भी स्वयं विशेष आनंद का अनुभव हुआ, जो उन्हें अपने मालिक के साथ 'सही' होने के अनुभव से मिला। उन्होंने कहा, “ईश्वर की शपथ, मैं ईश्वर से क्षमा चाहता हूँ और मैं दिन भर में सत्तर बार से अधिक ईश्वर से पश्चाताप प्रकट करता हूँ।”[3]
ईश्वर, हमारा सर्जक, मनुष्य जाति को भली भांति जानता है, वह हमारी अपूर्णता को और कमजोरियों को जानता है, और इसलिए उसने हमारे लिये पश्चाताप का मार्ग बताया है और पश्चाताप का द्वार खुला रखा है जब तक कि सूर्य पश्चिम से ही न उगने लगे (निर्णय दिवस के आसपास)।
“और अपने मालिक की शरण में पश्चाताप और आज्ञाकारिता की पूरी आस्था के साथ जाओ, इसके पहले कि तुम्हारे ऊपर कष्ट आए, तब तुम्हारी सहायता नहीं की जाएगी।” (क़ुरआन 39:54)
“ओ आस्था रखने वाले! ईश्वर के पास सच्चे पश्चाताप के साथ जाओ! हो सकता है ईश्वर तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्त कर दें, और तुम्हें उद्यान में प्रवेश करने दें जिसके नीचे नदियाँ बहती है (स्वर्ग)…”(क़ुरआन 66:8)
“और तुम सभी ईश्वर से प्रार्थना करो कि तुम्हें क्षमा कर दें, ओ आस्तिकों, तुम सफल हो सकते हो।” (क़ुरआन 24:31)
पश्चाताप इतना ही आसान है जितना ईश्वर के पास जाना और उससे दया और क्षमा मांगना। सबसे घने अँधेरों में या सबसे लंबी रातों में, ईश्वर इसके लिये तुम्हारी प्रतीक्षा करता है कि तुम उसके पास जाओ और उससे पश्चाताप प्रकट करो।
“ईश्वर रात को अपना हाथ आगे बढ़ाता है उन लोगों का पश्चाताप स्वीकार करने के लिये जिन्होंने दिन में पाप किया, और दिन में अपना हाथ आगे बढ़ाता है उन लोगों का पश्चाताप स्वीकार करने के लिये जिन्होंने रात में पाप किया, (और यह क्रम जारी रहेगा) जब तक कि सूर्य पश्चिम से उदय न हो जाए।”[4]
कोई अपराध इतना छोटा या इतना बड़ा पाप नहीं होता कि कोई ईश्वर को पुकारे और वह उसके प्रति दयालु न हो। पैगंबर मुहम्मद ने, ईश्वर की दया और आशीर्वाद उन पर बना रहे, एक ऐसे आदमी की कहानी सुनाई जिसके पाप इतने बड़े थे कि दया की कोई आशा नहीं थी, लेकिन ईश्वर बहुत दयालु और क्षमाशील है। यहाँ तक कि वे भी, जिनका जीवन इतना टूट चुका हो और पाप से इतना कलुषित हो गया हो कि जिसे संवारा न जा सकता हो, सुकून पाते हैं। ।
“तुमसे पहले यहाँ एक आदमी आया जिसने निन्यानवे लोगों की हत्या की थी। तब उसने पूछा कि पृथ्वी पर सबसे बुद्दिमान व्यक्ति कौन है, उसे एक साधु के पास भेजा गया, तो वह उसके पास गया, उसे बताया कि उसने निन्यानवे लोगों की हत्या की है, और पूछा क्या उसे क्षमा मिल सकती है। साधु ने कहा, 'नहीं', तो उसने साधु को मार दिया और इस तरह सौ पूरे कर लिये। तब उसने पूछा कि पृथ्वी पर सबसे बुद्दिमान व्यक्ति कौन है और उसे एक विद्वान के पास भेजा गया। उसने विद्वान को बताया कि उसने सौ लोगों की हत्या की है, और पूछा क्या उसे क्षमा मिल सकती है। विद्वान ने कहा, "हाँ, तुम्हारे और पश्चाताप के बीच में भला क्या आ सकता है? तुम फलां शहर में जाओ, क्योंकि वहाँ ऐसे लोग हैं जो ईश्वर की पूजा करते हैं। जाओ और उनके साथ पूजा करो, और अपने शहर में वापस मत जाना क्योंकि वह बुरी जगह है।” तो वह आदमी चल दिया, पर जब वह आधे रास्ते में था, मृत्यु का देवदूत उसके पास आया, तो दया का देवदूत और क्रोध का देवदूत उसके बारे में बहस करने लगे। दया का देवदूत बोला: 'वह पश्चाताप कर रहा था और ईश्वर को खोज रहा था।' क्रोध के देवदूत ने कहा: ‘उसने कभी कोई अच्छा काम नहीं किया।’ एक देवदूत मनुष्य का रूप धर कर उनके पास आया, और उन्होंने उससे मामले का फैसला करने को कहा। उसने कहा, ‘दोनों शहरों के बीच की दूरी नापो (उसके घर का शहर और जिस शहर को वह जा रहा था), और जिस शहर के वह ज़्यादा निकट है वह वहीं का निवासी है।’ तो उन्होंने दूरी नापी, और पाया कि जिस शहर को वह जा रहा था वह उसके अधिक निकट था, इसलिए दया का देवदूत उसे ले गया।”[5]
पैगंबर मुहम्मद की, ईश्वर की दया और आशीर्वाद उन पर बना रहे, पारंपरिक कथाओं में इसके दूसरे संस्करण के अनुसार, वह व्यक्ति अच्छे शहर से हाथ भर की दूरी से अधिक निकट था, इसलिए उसे उस शहर के लोगों में गिन लिया गया।[6]
शांतिपूर्ण जीवन बिताने के लिये पश्चाताप बहुत जरूरी है। पश्चाताप का पुरुस्कार है ईश्वर के निकट एक अच्छा जीवन जिसमें संतोष है और मन की शांति है। लेकिन, पश्चाताप की तीन शर्तें हैं। वे हैं, पाप से दूर होना, पाप करने पर जीवन भर दुख की भावना रखना, और प्रण करना कि फिर कभी पाप नहीं करना। अगर ये तीन शर्तें सच्चे मन से पूरी की जाएँ तो ईश्वर क्षमा कर देंगे। अगर पाप से किसी दूसरे के अधिकारों का हनन होता हो, तो एक चौथी शर्त है। जहाँ तक मानव क्षमता हो, हनन किए अधिकारों को बहाल करना।
ईश्वर की दया और क्षमाशीलता इतनी व्यापक है कि वह क्षमा करता रहेगा। अगर व्यक्ति सच्चा है, ईश्वर उसे क्षमा कर देंगे जब तक कि मृत्यु की खड़खड़ाहट गले तक न पहुँच जाए।
जाने माने इस्लामिक विद्वान इब्न कथीर ने कहा है, “निश्चय ही, जब जीते रहने की आशा धुंधली होने लगे, मृत्यु का देवदूत आत्मा को लेने आ जाता है। आत्मा जब गले तक पहुँचती है, और उसे धीरे से निकाला जाता है, तो उस समय पश्चाताप की स्वीकृति नहीं होती।”[7]
सच्चे पश्चाताप में ही मोक्ष पाने की राह है। मोक्ष ईश्वर की सच्ची भक्ति से प्राप्त होता है। उसके अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं हैं, वही सबसे शक्तिशाली है, सबसे दयालु है, सबसे अधिक क्षमाशील है।[8]
[1] सहीह मुस्लिम
[2] अल -तिरमिधि
[3] सहीह अल-बुखारी
[4] सहीह मुस्लिम
[5] सहीह अल-बुखारी, सहीह मुस्लिम
[6] सहीह मुस्लिम
[7] तफ़सीर इब्न कथीर, अध्याय 4, आयत 18.
[8] ईश्वर की क्षमाशीलता के बारे में अधिक जानकारी के लिये कृपया इस शीर्षक के लेख देखें Accepting Islam parts 1 & 2. (https://www.islamreligion.com/articles/3727/viewall/)
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