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इस्लाम में मोक्ष (3 का भाग 2): ईश्वर की पूजा और आज्ञा पालन 

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विवरण: इस्लाम में एक ईश्वर में विश्वास ही मोक्ष की राह है। 

  • द्वारा Aisha Stacey (© 2010 IslamReligion.com)
  • पर प्रकाशित 04 Nov 2021
  • अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
  • मुद्रित: 0
  • देखा गया: 2757 (दैनिक औसत: 5)
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'इस्लाम में मोक्ष' की इस श्रंखला के भाग 1 में, हमने सीखा कि मोक्ष एकमेव ईश्वर की पूजा से मिलता है। हम केवल उस एक की पूजा करते हैं और उसके निर्देशों का पालन करते हैं।  हमने यह भी सीखा कि इस्लाम मानव अस्तित्व के मूल में पाप के होने के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता, और इस तरह मुस्लिम मानते हैं कि सब लोग पाप रहित पैदा होते हैं। इस लेख में हम ईसाई धर्म में पश्चाताप की अवधारणा का विश्लेषण करेंगे, जो यीशु का मानव जाति के पापों के कारण मरना है, और हम देखेंगे कि किस तरह इस्लाम इस अवधारणा को पूरी तरह अस्वीकार करता है। इस्लाम में मोक्ष तौहीद, एक ही ईश्वर को मानने से मिलता है।     

तौहीद एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है केवल एक और जब हम तौहीद को ईश्वर के संदर्भ में देखते हैं तो इसका अर्थ है केवल एक ही ईश्वर को मानना और उस पर कायम रहना। यह विश्वास है कि ईश्वर केवल एक है, बिना किसी साथी या भागीदार के। अल्लाह के अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं जो पूजा के योग्य हो, और यही इस्लाम की बुनियाद है। इस विश्वास के साथ एक और विश्वास कि मुहम्मद उसका पैगंबर है, एक व्यक्ति को मुस्लिम बनाता है। तौहीद में निश्चित रूप से विश्वास करना मोक्ष की गारंटी है।   

“कहो, "वह अल्लाह एक (अनोखा) है, अल्लाह निरपेक्ष (और सर्वाधार) है, न वह जनिता है और न जन्य, और न कोई उसका समकक्ष है।” (क़ुरआन 112)

“निस्संदेह! मैं अल्लाह हूँ! और मेरे अतिरिक्त किसी और को पूजे जाने का अधिकार नहीं है, इसलिए मेरी पूजा करो...” (क़ुरआन 20:14)

“वह आकाशों और धरती का सर्वप्रथम पैदा करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है, जबकि उसकी पत्नी ही नहीं? और उसी ने हर चीज़ को पैदा किया है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है। वही अल्लाह तुम्हारा रब (मालिक); उसके सिवा कोई पूज्य नहीं; हर चीज़ का स्रष्टा है; अतः तुम उसी की बन्दगी करो। वही हर चीज़ का ज़िम्मेदार है। निगाहें उसे नहीं पा सकतीं, बल्कि वही निगाहों को पा लेता है। वह अत्यन्त सूक्ष्म (एवं सूक्ष्मदर्शी) ख़बर रखनेवाला है” (क़ुरआन 6:101-103)

मुस्लिम केवल एक ईश्वर को मानते हैं बिना किसी मध्यस्थों के, उसके कोई भागीदार, साथी, पुत्र, पुत्रियाँ, या सहायक नहीं हैं। उनकी पूजा केवल ईश्वर के लिये है, क्योंकि वही एक पूजा के योग्य है। ईश्वर से बड़ा कोई नहीं।   

ईसाईयों का विश्वास कि यीशु ईश्वर के पुत्र हैं या स्वयं ईश्वर हैं जो तौहीद के बिल्कुल विपरीत है। त्रैलोक्य, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की अवधारणा को इस्लाम नकारता है। यह मानना कि यीशु ने मरकर पश्चाताप किया (या हमारी आत्माओं को बचाया) एक ऐसी अवधारणा है जो इस्लाम की आस्था के पूरी तरह विपरीत है। 

“हे अह्ले किताब (ईसाईयो!) अपने धर्म में अधिकता न करो और ईश्वर पर केवल सत्य ही बोलो। मसीह़ मर्यम का पुत्र केवल ईश्वर का रसूल और उसका शब्द है, जिसे (ईश्वर ने) मर्यम की ओर डाल दिया तथा उसकी ओर से एक आत्मा है, अतः, ईश्वर और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और ये न कहो कि (ईश्वर) तीन हैं, इससे रुक जाओ, यही तुम्हारे लिए अच्छा है, इसके सिवा कुछ नहीं कि ईश्वर ही अकेला पूज्य है, वह इससे पवित्र है कि उसका कोई पुत्र हो, आकाशों तथा धरती में जो कुछ है, उसी का है और ईश्वर काम बनाने के लिए बहुत है।” (क़ुरआन 4:171)

यीशु का सूली पर चढ़कर मरना ईसाई धर्म के केंद्र में है। यह उस धारणा को दर्शाता है कि यीशु ने मानव जाति के पापों के लिये प्राण त्यागे। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति के पापों का 'प्रतिदान' यीशु ने दे दिया और अब वह जो चाहे करने के लिये स्वतंत्र है, क्योंकि अंत में वह यीशु में विश्वास रखकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इस्लाम इसे पूरी तरह नकारता है।    

ईश्वर के लिये, यहाँ तक कि उसके पैगंबर के लिये भी यह कतई आवश्यक नहीं कि वह मानव जाति के पापों की क्षमा पाने के लिये अपना बलिदान दे। इस्लाम इस सोच को पूरी तरह खारिज करता है। इस्लाम की बुनियाद इस बात को मजबूती से मानने में है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की पूजा नहीं करनी चाहिए।  क्षमा उस एक ईश्वर से मिलती है; इसलिए, जब कोई मनुष्य क्षमा माँगता है, उसे ईश्वर के पास समर्पण और सच्चे पश्चाताप की भावना से जाना चाहिए, इस वचन के साथ कि आगे ऐसा नहीं होगा। तभी और केवल तभी सर्वशक्तिमान ईश्वर पापों को क्षमा करेगा।   

इस्लाम सिखाता है कि यीशु मानव जाति के पापों का पश्चाताप करने नहीं आए थे; बल्कि उनका उद्देश्य उनसे पहले आए हुए पैगंबरों के संदेश को दोहराना था। 

“...ईश्वर के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं और ईश्वर ही प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है…” (क़ुरआन 3:62)

यीशु के सूली पर चढ़ने और मृत्यु के विषय में इस्लाम का विश्वास बहुत स्पष्ट है। वह मानव जाति के पापों का प्रायश्चित करने के लिये नहीं मरे। यीशु को सूली पर चढ़ाने का षड्यन्त्र था पर वह सफल नहीं हुआ; वह मरे नहीं बल्कि स्वर्ग में चले गए। निर्णय दिवस के आने तक, यीशु फिर इस पृथ्वी पर आएंगे और केवल एक ईश्वर के विश्वास को फैलाना जारी रखेंगे। क़ुरआन बताती है कि निर्णय के दिन यीशु इस बात से इनकार करेंगे कि उन्होंने लोगों से उनको पूजने के लिये कहा था, ईश्वर को या उनके साथ ईश्वर को पूजने के लिये नहीं।        

“और याद करो जब ईश्वर कहेगा, "ऐ मरयम के बेटे ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि ईश्वर के अतिरिक्त दो और पूज्य मुझ और मेरी माँ को बना लो?" वह कहेगा, "महिमावान है तू! मुझसे यह नहीं हो सकता कि मैं यह बात कहूँ, जिसका मुझे कोई हक़ नहीं है। यदि मैंने यह कहा होता तो तुझे मालूम होता। तू जानता है, जो कुछ मेरे मन में है। परन्तु मैं नहीं जानता जो कुछ तेरे मन में है। निश्चय ही, तू छिपी बातों का भली-भाँति जाननेवाला है।  "मैंने उनसे उसके सिवा और कुछ नहीं कहा, जिसका तूने मुझे आदेश दिया था, यह कि ईश्वर की बन्दगी करो, जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है। और जब तक मैं उनमें रहा उनकी ख़बर रखता था, फिर जब तूने मुझे उठा लिया तो फिर तू ही उनका निरीक्षक था और तू ही हर चीज़ का साक्षी है।” (क़ुरआन 5:116-117)

ईश्वर हमें क़ुरआन में बताते हैं कि केवल एक अक्षम्य पाप है, और वह है अगर आप ईश्वर के भागीदारों में विश्वास रखते हुए मर जाते हैं और मृत्यु से पहले उस पर पश्चाताप नहीं करते।    

“निःसंदेह ईश्वर ये नहीं क्षमा करेगा कि उसका साझी बनाया जाये और उसके सिवा जिसे चाहे, क्षमा कर देगा। जो ईश्वर का साझी बनाता है, तो उसने महा पाप गढ़ लिया।” (क़ुरआन 4:48)

अपनी परंपराओं में मुहम्मद ने, ईश्वर की कृपा और आशीर्वाद उन पर बना रहे, हमें सूचित किया कि ईश्वर ने कहा है, “मैं स्वयं-सिद्ध हूँ, मुझे किसी भागीदार की आवश्यकता नहीं। इसलिए जो भी मेरे साथ किसी और के लिये कोई काम करता है तो मैं उस काम को त्याग दूँगा जो उसने किसी और के लिये किया था।”[1]

लेकिन, ईश्वर को भागीदारों के साथ रखने के इस गंभीर पाप को भी क्षमा किया जा सकता है अगर वह सच्चे मन से ईश्वर के आगे समर्पण करता है, पूरे पश्चाताप के साथ। 

“और निस्संदेह, मैं वाकई में उसके लिये क्षमाशील हूँ जो पश्चाताप करता है, मेरे (केवल एक होने में, और मेरी पूजा में किसी और को साथ न रखने में) विश्वास करता है और न्यायपूर्ण तरह से अच्छे काम करता है, और फिर ऐसा ही करता रहता है (मृत्यु पर्यंत)।” (क़ुरआन 20:82)

“जिन्होंने अविश्वास किया है इनसे कहो, अगर वे ऐसा (अविश्वास करना) बंद कर देते हैं, उनका अतीत क्षमा कर दिया जाएगा।” (क़ुरआन 8:38)

प्रत्येक मनुष्य केवल एक ईश्वर की पूजा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ईश्वर से जुड़े रहकर और अपनी गलतियों और पापों का पश्चाताप मोक्ष का द्वार है। अगले लेख में, हम पश्चाताप की शर्तों पर बात करेंगे।  



फ़ुटनोट:

[1] सहीह मुस्लिम 

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