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क़ुरआन ईश्वर के दो नामों का उल्लेख करता है जो भाषाई रूप से काफी एक समान है। पहला अल-हकीम (बुद्धिमान) और दूसरा अल-हाकिम (न्यायाधीश) है। क़ुरआन में ईश्वर को 93 बार "बुद्धिमान" और छह बार "न्यायाधीश" के रूप में संदर्भित किया गया है।
उदाहरण के लिए, ईश्वर कहता है:
"वास्तव में आप सर्वज्ञ, ज्ञानी हैं।" (क़ुरआन 2:32) और "... प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ हैं" (क़ुरआन 2:129)
"वह ज्ञानी है, सर्वज्ञ है।" (क़ुरआन 6:18)
"ईश्वर बड़ा उदार तत्वज्ञ है।" (क़ुरआन 4:130)
ईश्वर स्वयं को न्यायाधीश बताता है जब वह कहता है: "क्या मैं ईश्वर के सिवा किसी दूसरे न्यायकारी की खोज करूं, जबकि उसीने तुम्हारी ओर ये खुली पुस्तक (क़ुरआन) उतारी है" (क़ुरआन 6:114)
और: "वह सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश हैं।" (क़ुरआन 7:87)
और जहां वह कहता है: "और नूह ने अपने पालनहार को पुकारा, और कहा: 'हे मेरे ईश्वर! निश्चित रूप से मेरा बेटा मेरे परिवार का है! और तुम्हारा वादा सच है, और तुम न्यायियों में सबसे न्यायी हो!'" (क़ुरआन 11: 45)
और: "क्या ईश्वर सब न्यायियों से बढ़ कर न्यायी नहीं है?" (क़ुरआन 95:8)
बुद्धिमान होने का अर्थ है चीजों को वैसे ही जानना जैसे वे हैं, उनके प्रति तदनुसार कार्य करना, और हर चीज को उसके उचित स्थान और कार्य में वहन करना। ईश्वर अपनी रचनाओं के बारे में कहता है: "और तुम देखते हो पर्वतों को, तो उन्हें समझते हो स्थिर (अचल) हैं, जबकि वे उस दिन उड़ेंगे बादल के समान, ये ईश्वर की रचना है, जिसने सुदृढ़ किया है प्रत्येक चीज़ को।" (क़ुरआन 27:88)
ईश्वर की बुद्धि उसकी रचना में देखी जा सकती है, खासकर मनुष्यों की रचना मे और उसके मन और आत्मा में। ईश्वर ने हमें बताया कि उसने मनुष्य को सर्वोत्तम रूपों में बनाया था:
"हमने इनसान को सर्वोत्तम रूप में पैदा किया। फिर उसे सबसे नीचे गिरा दिया। परन्तु, जिसने विश्वास किया तथा सदाचार किया, उनके लिए ऐसा बदला है, जो कभी समाप्त नहीं होगा। फिर तुम प्रतिफल (बदले) के दिन को क्यों झुठलाते हो? क्या ईश्वर सब न्यायियों से बढ़ कर न्यायी नहीं है?" (क़ुरआन 95:4-8)
ईश्वर बुद्धिमान है जो अपने उन सेवकों को ज्ञान प्रदान करता है जिन्हें वह उचित समझता है। ईश्वर कहता है: "वह जिसे चाहता है उसे बुद्धि देता है, और जिसे बुद्धि दे दी गई, उसे बड़ा कल्याण मिल गया और समझ वाले ही शिक्षा ग्रहण करते हैं।" (क़ुरआन 2:269)
ईश्वर कुछ लोगों को समस्याओं से निपटने और उसके समाधान के लिए असाधारण क्षमता देता है, ताकि वो संकट या कठिनाई के समय हर विचार का उचित और संतुलित मूल्यांकन कर सकें। ये वे लोग हैं जिनसे दूसरे लोग सलाह लेते हैं और अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उन पर भरोसा करते हैं। कुछ लोगों के पास सामाजिक मुद्दों का ज्ञान होता है। कुछ लोगों के पास पारस्परिक संबंधों का ज्ञान होता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आर्थिक मामलों में बुद्धिमान होते हैं।
परामर्श का क्षेत्र आज एक महत्वपूर्ण और आवश्यक क्षेत्र है। कई सफल सलाहकारों को ईश्वर ने उनके क्षेत्र में ज्ञान, अंतर्दृष्टि और अनुभव का आशीर्वाद दिया है।
हमें यह समझना चाहिए कि ज्ञान विशिष्ट हो सकता है। एक व्यक्ति के पास जीवन के एक या एक से अधिक पहलुओं का गहन ज्ञान हो सकता है, चाहे वो हर तरह से बुद्धिमान हो या न हो। एक अविश्वासी व्यक्ति सांसारिक मामलों में बुद्धिमान हो सकता है, लेकिन आस्था के मामलों में बुद्धिमान नहीं हो सकता।
सृष्टि के सभी विषयों पर ईश्वर की प्रभुसत्ता है। यह अल-हकम नाम से व्यक्त किया गया है, जो निम्नलिखित छंद मे इस्तेमाल हुआ है: "क्या मैं ईश्वर के सिवा किसी दूसरे न्यायकारी की खोज करूं, जबकि उसीने तुम्हारी ओर ये खुली पुस्तक (क़ुरआन) उतारी है" (क़ुरआन 6:114)
इसके अलावा, सृष्टि में उसके अधिकार और आदेश के बिना कुछ भी नहीं होता है। ईश्वर कहता है: "उसीसे मांगते हैं जो आकाशों तथा धरती में हैं। प्रत्येक दिन वह एक नये कार्य में है।" (क़ुरआन 55:29)
इसी तरह, ईश्वर का आदेश विधान-संबंधी हो सकता है। ईश्वर ने कुछ कर्मों को वैध और अन्य कर्मों को पाप बताया है। वह हमें कुछ प्रकार के काम करने की आज्ञा देता है और दसूरे कामों को करने से मना करता है। ईश्वर के आदेश को कोई रद्द या पलट नहीं सकता है। ईश्वर कहता है: "वही उत्पत्तिकार है और वही शासक है।" (क़ुरआन 7:54)
क़ुरआन ईश्वर को "सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश" बताता है। इससे ईश्वर के पूर्ण न्याय और अपार दया की पुष्टि होती है। ईश्वर कभी किसी का गलत नहीं करता और कभी अत्याचार नही करता। वह अपने सेवकों के लिए जो कानून बनाता है वह कभी भी बोझिल नहीं होता और न ही कभी अनुचित होता है। बल्कि, इस्लाम की वास्तविक शिक्षाएं बिना किसी पक्षपात के सभी लोगों के अधिकारों का समर्थन करती हैं: शासक और शासित, मजबूत और कमजोर, पुरुष और महिला, धर्मी और पापी, विश्वासी और अविश्वासी। यह शांति के समय और युद्ध के समय में और बिना किसी अपवाद के सभी परिस्थितियों में उनके अधिकारों का समर्थन करता है।
इसलिए मुसलमानों को सभी मामलों में मार्गदर्शन के लिए क़ुरआन और पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) की सुन्नत (शिक्षाओं) का हवाला देना चाहिए। उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन मे मार्गदर्शन के लिए और राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में मार्गदर्शन के लिए समुदायों, समाजों और राष्ट्रों के रूप में ऐसा ही करना चाहिए।
ईश्वर बुद्धिमान है और वह न्यायी न्यायाधीश है। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार, कोई भी कभी भी दूसरे के पाप के लिए दंडित नही होता। ईश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नही करता है। किसी भी पापी को कभी भी किए गए पाप के दंड से अधिक दंडित नहीं किया जाता है और हर अच्छे काम का इनाम दिया जाता है।
ईश्वर कहता है: "जिन्होंने विश्वास किया है और अच्छे कर्म किए हैं, तो हम उनका प्रतिफल व्यर्थ नहीं करेंगे, जो सदाचारी हैं।" (क़ुरआन 18:30)
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