इस्लाम के बारे में शीर्ष दस मिथक (2 का भाग 2): अधिक मिथकों को खत्म करना
विवरण: भाग एक का अगला भाग, जिसमें हम नंबर चार से दस तक के मिथकों की बात करेंगे।
- द्वारा Aisha Stacey (© 2014 IslamReligion.com)
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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4.इस्लाम अन्य धर्मों और विश्वासों को बर्दाश्त नहीं करता है।
ऐतिहासिक रूप से इस्लाम ने हमेशा धर्म की स्वतंत्रता के सिद्धांत का सम्मान और समर्थन किया है। पैगंबर मुहम्मद की परंपराओं सहित क़ुरआन और अन्य सिद्धांत ग्रंथ अन्य धर्मों और अविश्वासिओं के प्रति सहिष्णुता का उपदेश देते हैं। मुस्लिम शासन के तहत रहने वाले गैर-मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने की अनुमति है और यहां तक कि उनके अपने न्यायालय भी हैं।
5.इस्लाम 1400 साल पहले ही शुरू हुआ था।
इस्लाम शब्द (सा-ला-म) का मूल वही है जो अरबी शब्द का है, जिसका अर्थ है शांति और सुरक्षा - सलाम। संक्षेप में, इस्लाम का अर्थ है, ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण और ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन जीने से मिलने वाली शांति और सुरक्षा। इस प्रकार पूरे इतिहास में जो कोई भी ईश्वर की इच्छा के अधीन एकेश्वरवाद का पालन करता है, उसे मुस्लिम माना जाता है। आदम के समय से ही मनुष्य इस्लाम का पालन कर रहा है। युगों-युगों से ईश्वर ने अपने लोगों का मार्गदर्शन करने और उन्हें शिक्षा देने के लिए पैगंबरों और दूतों को भेजा। सभी पैगंबरों का मुख्य संदेश हमेशा से यही रहा है कि एक ही सच्चा ईश्वर है और सिर्फ उसकी ही पूजा की जानी चाहिए। ये पैगंबर आदम के साथ शुरू हुआ और इसमें नूह, इब्राहिम, मूसा, दाऊद, सुलैमान, याह्या और जीसस शामिल हैं (इन सभी पर शांति हो)। पवित्र क़ुरआन में ईश्वर कहता है:
"और नहीं भेजा हमने आपसे पहले कोई भी रसूल, परन्तु उसकी ओर यही वह़्यी (प्रकाशना) करते रहे कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है। अतः मेरी ही पूजा करो।" (क़ुरआन 21:25)
हालाँकि, इन पैगंबरो का सच्चा संदेश या तो खो गया था या समय के साथ भ्रष्ट हो गया था। यहां तक कि सबसे हाल की किताबें, तौरात और इंजील भी मिलावटी थीं और इसलिए उन्होंने लोगों को सही रास्ते पर ले जाने के लिए अपनी विश्वसनीयता खो दी। इसलिए यीशु के 600 साल बाद, ईश्वर ने पैगंबर मुहम्मद को उनके अंतिम रहस्योद्घाटन, पवित्र क़ुरआन के साथ सभी मानवजाति के लिए भेजकर पिछले पैगंबरों के खोए हुए संदेश को पुनर्जीवित किया। सर्वशक्तिमान ईश्वर क़ुरआन में कहता है:
"तथा नहीं भेजा है हमने आपको, परन्तु सब मनुष्यों के लिए शुभ सूचना देने तथा सचेत करने वाला बनाकर। किन्तु, अधिक्तर लोग ज्ञान नहीं रखते।" (क़ुरआन 34:28)
"जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई और दीन (धर्म) तलब करेगा तो उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा और आख़िरत में वह घाटा उठानेवालों में से होगा।" (क़ुरआन 3:85)
6.मुसलमान यीशु को नहीं मानते।
मुसलमान सभी पैगंबरो से प्यार करते हैं; किसी को अस्वीकार करना इस्लाम के पंथ को अस्वीकार करना है। दूसरे शब्दों में, मुसलमान यीशु में विश्वास करते हैं, प्यार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं, जिसे अरबी में ईसा के नाम से जाना जाता है। अंतर यह है कि मुसलमान क़ुरआन, और पैगंबर मुहम्मद की परंपराओं और बातों के अनुसार उनकी भूमिका को समझते हैं। वे यह नहीं मानते कि यीशु ईश्वर है, न ही ईश्वर का पुत्र है और वे त्रिएकत्व की अवधारणा में विश्वास नहीं करते हैं।
क़ुरआन के तीन अध्यायों में यीशु, उनकी माता मरियम और उनके परिवार के जीवन को दर्शाया गया है, और प्रत्येक में यीशु के जीवन का विवरण प्रकट होता है, जो बाइबल में नहीं मिलता है। मुसलमानों का मानना है कि वह कुंवारी मैरी से, पिता के बिना एक चमत्कारी रूप से पैदा हुए थे और उन्होंने कभी भी ईश्वर के पुत्र होने का दावा नहीं किया या ये नही कहा कि उनकी पूजा की जानी चाहिए। मुसलमान भी मानते हैं कि यीशु अंतिम दिनो मे धरती पर लौट आएंगे।
7.पैगंबर मुहम्मद ने क़ुरआन लिखा था।
यह दावा पहली बार पैगंबर मुहम्मद के विरोधियों द्वारा किया गया था। वे अपने हितों की रक्षा के लिए बेताब थे, जो इस्लाम से छाया हुआ था और क़ुरआन के दैवीय लेखक के बारे में संदेह फैलाने की कोशिश कर रहे थे।
23 साल की अवधि में, स्वर्गदूत जिब्रईल द्वारा पैगंबर मुहम्मद को क़ुरआन का खुलासा किया गया था। ईश्वर स्वयं क़ुरआन में दावे को संबोधित करते हैं।
"और जब पढ़कर सुनाई गईं उन्हें हमारे छंद, तो अविश्वासिओं ने उस सत्य को, जो उनके पास आ चुका है, कह दिया कि ये तो खुला जादू है, या वे कहते हैं कि आपने इसे स्वयं बना लिया है ...' (क़ुरआन 46:7–8)
इसके अलावा पैगंबर मुहम्मद एक अनपढ़ व्यक्ति थे, यानी वह पढ़ने या लिखने में असमर्थ थे। ईश्वर ने क़ुरआन में भी इसका उल्लेख किया है।
"न तो तुमने इससे (क़ुरआन) पहले कोई किताब पढ़ी और न ही तुमने कोई किताब लिखी..." (क़ुरआन 29:48)
क़ुरआन आश्चर्यजनक तथ्यों से भरा है, इसलिए यह साबित करता है कि पैगंबर मुहम्मद ने क़ुरआन नहीं लिखा था, हम पूछते हैं कि सातवीं शताब्दी मे कोई मनुष्य कैसे उन चीजों को जान सकता है, जिन्हें हाल ही में वैज्ञानिकों ने खोजा है। वह कैसे जान सकते थे कि बारिश के बादल और ओले कैसे बनते हैं, या कि ब्रह्मांड का विस्तार (फैलाव) हो रहा है? अल्ट्रासाउंड मशीन जैसे आधुनिक आविष्कारों के बिना वह भ्रूण के विकास के विभिन्न चरणों का विस्तार से वर्णन करने में सक्षम कैसे थे?
8.अर्धचंद्र इस्लाम का प्रतीक है।
पैगंबर मुहम्मद के नेतृत्व वाले मुस्लिम समुदाय के पास कोई प्रतीक चिन्ह नहीं था। कारवां और सेनाएं पहचान के उद्देश्य से झंडे का इस्तेमाल करती थीं लेकिन यह एक ठोस रंग था जो आमतौर पर काला या हरा होता था। मुसलमानों के पास इस्लाम का अपना प्रतिनिधित्व करने वाला कोई प्रतीक नहीं है, जिस तरह से क्रॉस ईसाई धर्म का प्रतिनिधित्व करता है या दाऊद का सितारा यहूदी धर्म का प्रतिनिधित्व करता है।
अर्धचंद्र का प्रतीक ऐतिहासिक रूप से तुर्कों से जुड़ा रहा है और इस्लाम से पहले यह उनके सिक्कों पर एक विशेषता थी। 1453 सीई में तुर्कों द्वारा कॉन्स्टेंटिनोपल (इस्तांबुल) पर विजय प्राप्त करने के बाद अर्धचंद्र और तारा मुस्लिम दुनिया से संबंधित हो गए। उन्होंने शहर के मौजूदा झंडे और प्रतीक को हटाने और इसे ओटोमन साम्राज्य का प्रतीक बनाने का फैसला किया। उस समय से अर्धचंद्र कई मुस्लिम बहुल देशों द्वारा अपनाया गया और यह गलत तरीके से इस्लामी आस्था के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।
9.मुसलमान एक चंद्र देवता की पूजा करते हैं।
भ्रमित लोग कभी-कभी अल्लाह को एक प्राचीन चंद्रमा देवता की आधुनिक व्याख्या के रूप में संदर्भित करते हैं। यह स्पष्ट रूप से असत्य है। अल्लाह ईश्वर के कई नामों में से एक है और इस नाम से सभी अरबी भाषी लोगों द्वारा संदर्भित किया जाता है, जिसमें महत्वपूर्ण संख्या में ईसाई और यहूदी शामिल हैं। अल्लाह किसी भी तरह से चंद्रमा की पूजा या चंद्रमा देवताओं से जुड़ा नहीं है।
पैगंबर इब्राहीम से पहले अरबों के धर्म के बारे में बहुत कम जानकारी है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि अरबों ने गलत तरीके से मूर्तियों, आकाशीय निकायों, पेड़ों और पत्थरों की पूजा की थी। सबसे लोकप्रिय देवता मनाता, अल-लाता और अल-उज्जा के नाम से जाने जाते थे, हालांकि उन्हें चंद्रमा देवताओं या चंद्रमा से जोड़ने का कोई सबूत नहीं है।
10.जिहाद का अर्थ है पवित्र युद्ध।
युद्ध का अरबी शब्द जिहाद नहीं है। वर्दीधारी लोगों द्वारा 'पवित्र युद्ध' शब्दों के इस्तेमाल का आधार पवित्र धर्मयुद्ध के दौरान इस शब्द के ईसाई उपयोग में हो सकता है। जिहाद अरबी शब्द है जिसका अर्थ है संघर्ष करना या प्रयास करना। इसे अक्सर कई स्तरों के होने के रूप में वर्णित किया जाता है। सबसे पहले, ईश्वर के करीब होने के प्रयास में स्वयं के खिलाफ एक आंतरिक संघर्ष। दूसरे यह सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों पर आधारित मुस्लिम समुदाय के निर्माण का संघर्ष है। तीसरा यह एक सैन्य या सशस्त्र संघर्ष है।
सशस्त्र संघर्ष रक्षात्मक या आक्रामक हो सकता है। रक्षात्मक जिहाद तब लड़ा जाता है जब मुस्लिम भूमि पर आक्रमण किया जाता है और लोगों के जीवन, उनके धन और सम्मान को खतरा होता है। इसलिए मुसलमान आत्मरक्षा में हमलावर दुश्मन से लड़ते हैं। आक्रामक जिहाद उनके खिलाफ होता है जो इस्लामी शासन की स्थापना का विरोध करते हैं और इस्लाम को लोगों तक पहुंचने से रोकते हैं। इस्लाम सभी मानवजाति के लिए एक दया है और लोगों को पत्थरों और मनुष्यों की पूजा से रोक के एक सच्चे ईश्वर की पूजा करने के लिए, संस्कृति, लोगों और राष्ट्रों के उत्पीड़न और अन्याय से इस्लाम की समानता और न्याय तक लाने के लिए आया है। एक बार जब इस्लाम लोगों के लिए सुलभ हो जायेगा, तो इसे स्वीकार करने की कोई बाध्यता नहीं रहेगी - यह लोगों पर निर्भर होगा।
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