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इस्लाम, मुस्लिम और सलाम (शांति) शब्द अरबी भाषा के मूल शब्द "सा-ला-मा" से आए हैं। यह शांति, रक्षा और सुरक्षा को दर्शाता है। जब कोई व्यक्ति ईश्वर की इच्छा के अधीन होता है, तो वह सुरक्षा और शांति की सहज भावना का अनुभव करता है। सलाम एक वर्णनात्मक शब्द है जो शांति और धैर्य को दर्शाता है; इसमें सुरक्षा, रक्षा और विनम्रता की अवधारणाएं भी शामिल हैं। वास्तव में इस्लाम का पूर्ण अर्थ है एक ईश्वर के प्रति समर्पण जो हमें सुरक्षा, शांति और सद्भाव देता है। यह वास्तविक शांति है। मुसलमान मिलते समय एक दूसरे को 'अस्सलाम अलैकुम' कहते हैं। इन अरबी शब्दों का अर्थ है 'ईश्वर आपको सुरक्षित रखे (वास्तविक और स्थायी शांति)'। ये संक्षिप्त अरबी शब्द मुसलमानों को यह बताते हैं कि वे मित्र हैं, अजनबी नहीं। यह अभिवादन विश्वास करने वालों को एक विश्वव्यापी समुदाय बनने के लिए प्रोत्साहित करता है जो जाति या राष्ट्रवादी वफादारी से मुक्त और शांति और एकता से बंधे हुए हैं। इस्लाम अपने आप में आंतरिक शांति से जुड़ा हुआ है।
"और वो लोग जिन्होंने ईश्वर और उसके पैगंबरो पर विश्वास किया और अच्छे काम किए, उन्हें ऐसे स्वर्गों में प्रवेश दिया जायेगा जिनमें नहरें बहती होंगी, वो अपने ईश्वर की अनुमति से उसमें हमेशा रहेंगे और उसमें उनका स्वागत ये होगा, तुमपर शान्ति हो!” (क़ुरआन 14:23)
इस्लाम का पहला सिद्धांत और केंद्र बिंदु है एक ईश्वर में विश्वास करना, और पूरा क़ुरआन यही बताता है। यह ईश्वर और उनके सार, नाम, गुण और कार्यों को बताता है। प्रार्थना हमें ईश्वर से जोड़ती है, हालांकि ईश्वर के नाम और गुणों को जानना और समझना एक महत्वपूर्ण और अनूठा अवसर है, जो केवल इस्लाम में मौजूद है। जो लोग वास्तव में ईश्वर को जानने का प्रयास नहीं करते उनका अस्तित्व उलझा हुआ और कष्टदायक होता है। मुसलमान को ईश्वर को याद करने और उसके प्रति आभारी होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और एक व्यक्ति ईश्वर के सुंदर नामों और गुणों पर विचार करके और समझ के ऐसा कर सकता है। इसी तरह ही हम अपने सृष्टिकर्ता को जान सकते हैं।
"वही ईश्वर है, उसके सिवा कोई भी पूजने के लायक नहीं। उसी के सर्वश्रेष्ठ नाम है।" (क़ुरआन 20:8)
"और सभी सुंदर नाम ईश्वर के हैं, उन्हें इन्हीं नामो से पुकारो, और उन लोगों की संगति छोड़ दो जो उनके नामों को झुठलाते हैं या इनकार करते हैं (या उनके खिलाफ अभद्र भाषा बोलते हैं)..." (क़ुरआन 7:180)
इस्लाम मानता है कि मनुष्य पृथ्वी और उस पर जो कुछ भी है उसके संरक्षक हैं , जिसमें शामिल है वनस्पति, जानवर, महासागर, नदियां, रेगिस्तान और उपजाऊ भूमि। ईश्वर हमें वे चीजें देता है जिसकी आवश्यकता हमें जीवित रहने और आगे बढ़ने के लिए होती है, लेकिन हम उनकी देखभाल करने और आने वाली पीढ़ियों के लिए उन्हें संरक्षित करने के लिए बाध्य हैं।
1986 में विश्व वन्यजीव कोष के तत्कालीन अध्यक्ष प्रिंस फिलिप ने दुनिया के पांच प्रमुख धर्मों के लीडर को इटली के शहर असिसि में मिलने के लिए बुलाया था। वे इस बात पर चर्चा करने के लिए मिले थे कि कैसे धर्मों पर विश्वास प्रकृति और पर्यावरण को बचाने में मदद कर सकता है। असिसि घोषणाओं में प्रकृति पर मुस्लिमों के कथन निम्नानुसार है:
मुसलमान कहते हैं कि इस्लाम बीच का रास्ता है और हम इस रास्ते पर कैसे चले, हमने अपने आसपास की पूरी सृष्टि में कैसे संतुलन और सामंजस्य बनाए रखा, इसके लिए हम जवाबदेह होंगे।
इन्हीं मूल्यों ने इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद को यह कहने के लिए प्रेरित किया: 'जो कोई पेड़ लगाएगा और उसकी देखभाल तब तक करेगा जब तक कि वह बड़ा न हो जाए और फल न देने लगे, उसे इसका इनाम दिया जायेगा।'
इन सभी कारणों से मुसलमान खुद को दुनिया और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदार मानते हैं, जो सभी अल्लाह की रचनाएं हैं।
कई अन्य धर्मों के विपरीत, मुसलमानों में कोई ऐसा विशिष्ट त्योहार नहीं है जिसमें वे फसल या दुनिया को धन्यवाद देते हैं। इसके बजाय वे अल्लाह को उसकी रचनाओं के लिए नियमित रूप से धन्यवाद देते हैं।[1]
इस्लाम का एक और खूबसूरत पहलू मानवता और उस ब्रह्मांड के लिए सम्मान है जिसमें हम रहते हैं। इस्लाम स्पष्ट रूप से कहता है कि ये सभी मनुष्यो की जिम्मेदारी है कि वह सृष्टि के सभी जीवों के साथ सम्मान, आदर और गरिमा से पेश आये। सबसे ज्यादा सम्मान के योग्य स्वयं निर्माता है और निश्चित रूप से उसकी आज्ञाओं का पालन करके हम उसका सम्मान कर सकते हैं। ईश्वर का पूर्ण सम्मान करके हम इस्लाम के सभी शिष्टाचार और नैतिकता के उच्च मानकों को अपने जीवन और हमारे आसपास के लोगों के जीवन में प्रवाहित कर सकते हैं। क्योंकि इस्लाम शांति, प्रेम और दया का सम्मान करता है, इसमें दूसरों के सम्मान, प्रतिष्ठा और गोपनीयता का सम्मान करना शामिल है। सम्मान करने का मतलब है बड़े पापों से बचना जैसे चुगली न करना, झूठ न बोलना, बदनाम न करना और अफ़वाह न उड़ाना। इसका अर्थ है उन पापों से बचना जो लोगों के बीच फूट डाल सकते है या विनाश की ओर ले जा सकते हैं।
सम्मान करने में शामिल है अपने भाइयों और बहनों को वैसे प्यार करना जैसे हम खुद को प्यार करते हैं। इसमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना शामिल है जैसा व्यवहार हम अपने लिए चाहते हैं और आशा करते हैं कि ईश्वर भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करें - कृपा, प्रेम और दया के साथ। बड़े पाप मानवता और ईश्वर की दया के बीच एक बाधा हैं और इस दुनिया में और उसके बाद सभी पीड़ा, दुख और बुराई का कारण बनते हैं। ईश्वर हमें पाप से दूर रहने और अपने चरित्र के विनाशकारी दोषों के विरुद्ध काम करने का आदेश देते हैं। हम एक ऐसे युग में रहते हैं जहां हम अक्सर दूसरों से सम्मान की उम्मीद करते हैं लेकिन अपने आसपास के लोगों का सम्मान नहीं करते। इस्लाम की एक खूबी यह है कि यह हमें पूरे दिल से ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करके खोया हुआ सम्मान वापस पाने में मदद करता है। हालांकि अगर हम यह नहीं समझेंगे कि हम कैसे और क्यों ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करें तो हमें वो सम्मान नहीं मिल सकता जो हम चाहते हैं और जिसकी हमें आवश्यकता है। इस्लाम हमें सिखाता है और ईश्वर हमें क़ुरआन में याद दिलाता है कि जीवन में हमारा एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की पूजा करना है।
"और मैंने (ईश्वर) जिन्नों और मनुष्यों को सिर्फ अपनी पूजा करने के लिए बनाया है।" (क़ुरआन 51:56)
[1] http://www.bbc.co.uk/schools/gcsebitesize/rs/environment/isstewardshiprev2.shtml
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