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इस्लाम के इतिहास में इस समय जब पूरे धर्म को कुछ लोगो के कार्यों से आंका जा रहा है, तब मीडिया की चकाचौंध से पीछे हटके इस्लाम की उन सुंदरताओं को देखें जो जीवन जीने की शैली को प्रभावित करती हैं। इस्लाम में महानता और वैभव है जो अक्सर उन कार्यों से ढक जाता है जिनका इस्लाम में कोई स्थान नहीं है या ऐसे लोग जो उन विषयों पर बाते करते हैं जिन्हें वे पूरी तरह नहीं समझते। इस्लाम एक धर्म है, जीवन जीने का एक तरीका है जो मुसलमानों को और अधिक मेहनत करने, आगे बढ़ने और ऐसे कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जो उनके आसपास के लोगों को प्रसन्न करे और सबसे महत्वपूर्ण उनके निर्माता को प्रसन्न करे।
इस्लाम की सुंदरता वो चीजें हैं जो धर्म का हिस्सा हैं और इस्लाम को सबसे अलग बनाती है। इस्लाम मानवजाति के सभी शाश्वत प्रश्नों का उत्तर देता है। मैं कहां से आया हूं? मैं यहां क्यों हूं? क्या वास्तव में यही सब है? इस्लाम सवालों के जवाब स्पष्टता और सुंदर तरीके से देता है। तो आइए इस्लाम की सुंदरता को देखें और उस पर विचार करें।
क़ुरआन ईश्वर की महिमा और उनकी रचना के आश्चर्य का विवरण देने वाली किताब है; इसमे उनकी दया और न्याय का भी विवरण है। यह कोई इतिहास की किताब, कहानी की किताब या वैज्ञानिक पाठ्यपुस्तक नहीं है, हालांकि इसमें ये सभी शामिल है और इसके अलावा भी बहुत कुछ है। क़ुरआन मानवता के लिए ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है - इसके जैसी कोई किताब नही है क्योंकि इसमें जीवन के रहस्यों के उत्तर हैं। यह सवालों के जवाब देती है और हमें भौतिकवाद से ऊपर देखने को कहती है और बताती है कि यह जीवन इसके बाद के कभी न खत्म होने वाले जीवन के रास्ते का एक छोटा पड़ाव है। इस्लाम जीवन को एक स्पष्ट लक्ष्य और उद्देश्य देता है।
"मैंने जिन्नों और मनुष्यों को केवल इसलिए पैदा किया है कि वे मेरी आराधना करें।" (क़ुरआन 51:56)
इसलिए यह सबसे महत्वपूर्ण किताब है और मुसलमानों को इसमें जरा भी संदेह नहीं कि यह आज भी ठीक वैसी ही है जैसा पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) के समय थी। जब हम उन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों को पूछते हैं तो हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उत्तर सत्य हो। यह जानकर तसल्ली होती है और सांत्वना मिलती है कि उत्तर एक ऐसी किताब में है जो ईश्वर का अपरिवर्तित वचन है। जब ईश्वर ने क़ुरआन उतारा, तो उन्होंने इसे संरक्षित करने का वादा किया। जो क़ुरआन हम आज पढ़ते हैं, वो वही हैं जो पैगंबर मुहम्मद के साथियों द्वारा कंठस्थ किये गए थे और लिखे गए थे।
"बेशक हम ही ने क़ुरआन उतारा है और हम ही तो उसके निगेहबान भी हैं।" (क़ुरआन 15:9)
खुश रहें, सकारात्मक रहें और शांति से रहें।[1] इस्लाम हमें यही सिखाता है, क्योंकि ईश्वर की सभी आज्ञाओं का उद्देश्य व्यक्ति की खुशी है। खुशी की कुंजी ईश्वर को समझने और उनकी आराधना करने में है। यह आराधना हमें उनकी याद दिलाती है और इसलिए हम अन्याय, अत्याचार और बुराई से दूर रहते हैं। यह हमें धार्मिक और अच्छे चरित्र वाला बनाती है। उसकी आज्ञाओं का पालन करके हम एक ऐसा जीवन जीते हैं जो सभी मामलों में हमारा सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन करती है। जब हम इतना सार्थक जीवन जीते हैं तब और केवल तभी हम चारो ओर हर समय और यहां तक कि सबसे बुरे समय में भी ख़ुशी देख पाते हैं। यह ख़ुशी हाथ के स्पर्श में होती है, बारिश या नई कटी घास की गंध में होती है, ठंडी रात की गर्म आग में होती है, या गर्म दिन की ठंडी हवा में होती है। साधारण सुख भी हमें प्रसन्न कर सकते हैं क्योंकि वे ईश्वर की दया और प्रेम की निशानी होते हैं।
मनुष्य की स्थिति का स्वभाव ये है कि वह बड़े दुख में भी खुशी के क्षण ढूंढ सकता है और कभी-कभी निराशा के समय में हम उन चीजों को ढूंढ सकते हैं जो हमें खुशी देती हैं। पैगंबर मुहम्मद ने कहा, "वास्तव में एक विश्वास करने वाले की बातें आश्चर्यजनक हैं! वे सभी उसके फायदे के लिए हैं। अगर उसे जीवन में आसानी दी जाती है तो वह आभारी होता है, और यह उसके लिए अच्छा है। और यदि उसे कष्ट दिया जाता है, तो वह दृढ़ रहता है, और यह उसके लिए अच्छा है।"[2]
हर मनुष्य पैदा होने के समय यह जानता है कि ईश्वर एक है। हालांकि जो लोग यह नहीं जानते कि ईश्वर से संवाद कैसे करना है या उनके साथ संबंध कैसे स्थापित करना है, वे अपने अस्तित्व को भ्रमित करने वाला और कभी-कभी परेशान करने वाला भी पाते हैं। ईश्वर से संवाद करना और उसकी आराधना करना सीखने से जीवन को एक नया अर्थ मिलता है।
इस्लाम के अनुसार, ईश्वर कभी भी और कहीं भी उपलब्ध है। हमें केवल उसे पुकारने की आवश्यकता है और वह उस पुकार का उत्तर देगा। पैगंबर मुहम्मद ने हमें ईश्वर को अक्सर पुकारने की सलाह दी। उन्होंने हमें बताया कि ईश्वर कहता है,
"मैं वैसा ही हूं जैसा मेरा बंदा सोचता है कि मैं हूं, (अर्थात मैं उसके लिए वह कर सकता हूं जो वह सोचता है कि मैं उसके लिए कर सकता हूं) और मैं उसके साथ हूं यदि वह मुझे याद करे। अगर वह मुझे अकेले में याद करता है, तो मैं भी उसे अकेले में याद करता हूं; और यदि वह मुझे लोगों के समूह में याद करता है, तो मैं भी उसे एक समूह में याद करता हूं जो उसके समूह से बेहतर है; और यदि वह मेरी तरफ एक कदम बढ़ाता है, तो मैं उसकी तरफ एक हाथ और नजदीक जाता हूं; और यदि वह मेरी तरफ एक हाथ नजदीक आता है, तो मैं उसकी तरफ दो हांथ नजदीक जाता हूं; और यदि वह चलते-चलते मेरे पास आए, तो मैं दौड़ते हुए उसके पास जाता हूं।"[3]
क़ुरआन में ईश्वर कहता है, "तुम मुझे याद करो और मैं तुम्हें याद करूंगा ..." (क़ुरआन 2:152)
विश्वास करने वाले ईश्वर को किसी भी भाषा में, कभी भी और कहीं भी पुकारते हैं। वे उनसे प्रार्थना करते हैं, और धन्यवाद देते हैं। मुसलमान भी हर दिन पांच बार प्रार्थना करते हैं और दिलचस्प बात यह है कि अरबी में प्रार्थना का शब्द 'सलाह' है, जिसका अर्थ है एक संबंध। मुसलमान ईश्वर से जुड़े हुए हैं और उनसे आसानी से संवाद कर सकते हैं। हम ईश्वर की दया, क्षमा और प्रेम से कभी अलग या दूर नहीं हैं।
[1] अल कर्नी, ऐद इब्न अब्दुल्ला, (2003), डोंट बी साड इंटरनेशनल इस्लामिक पब्लिशिंग हाउस, सऊदी अरब
[2] सहीह मुस्लिम
[3] सहीह अल-बुखारी, सहीह मुस्लिम
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