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इस्लाम में इस बात पर बल अधिक दिया गया है कि ईश्वर में आस्था रखने से जीवन न्यायपूर्ण, आज्ञाकारी और अच्छे नैतिक मूल्यों वाला बनता है न कि धार्मिक जटिलताओं के माध्यम से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने पर। इसलिए, इस्लाम का सिद्धांत है कि पैगंबरों द्वारा दिया गया प्राथमिक संदेश ईश्वर की इच्छा के आगे समर्पण करने और उसकी पूजा करने के लिये अधिक है बजाय ईश्वर के अस्तित्व का साक्ष्य बताने के लिये:
"और नहीं भेजा हमने आपसे (ओ मुहम्मद) पहले कोई भी रसूल, परन्तु उसकी ओर यही वह़्यी (प्रकाशना) करते रहे कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है। अतः मेरी ही इबादत (वंदना) करो।" (क़ुरआन 21:25)
केवल ईश्वर के पास ही आंतरिक या बाह्य रूप से पूजा करवाने का अधिकार है, अपने हृदय में या अंगों द्वारा। न ही किसी को ईश्वर के अलावा किसी और की पूजा करने का अधिकार है, और न ही ईश्वर के साथ किसी और की पूजा करने का। पूजा में उसके कोई भागीदार या सहयोगी नहीं हैं। पूजा, अपने सम्पूर्ण संदर्भ में और सभी पहलुओं में, केवल उसी के लिये है।
"उसके अलावा कोई और सच्चा ईश्वर पूजा करने योग्य नहीं है, वह सबसे दयालु है।" (क़ुरआन 2:163)
ईश्वर के पूजा कराने के अधिकार पर जितना जोर दिया जाए कम है। इस्लाम में विश्वास के प्रमाण का अनिवार्य अर्थ है: ला इल्लाह इल्ला अल्लाह कोई व्यक्ति पूजा के पवित्र अधिकार को स्वीकार करके ही मुस्लिम बनता है। इस्लामी मान्यता के अनुसार यह ईश्वर में विश्वास होने का मर्म है, सारे इस्लाम में। ईश्वर द्वारा भेजे गए सभी पैगंबरों और दूतों का यही मुख्य संदेश था - अब्राहम, ईज़ाक, इशमाइल, मोज़ेस, हिब्रू पैगंबरों, जीसस, और मुहम्मद, ईश्वर की दया और आशीर्वाद उन पर बना रहे। उदाहरण के लिये, मोज़ेस ने घोषित किया:
"सुनो, ओ इज़राएल; हमारा ईश्वर सबका स्वामी है।" (व्यवस्थाविवरण 6:4)
जीसस ने यही संदेश दोबारा दिया 1500 साल बाद जब उन्होंने कहा:
"सभी निर्देशों में पहला है, ‘सुनो, ओ इज़राएल; हमारा स्वामी ईश्वर सबका स्वामी है।" (मरकुस 12:29)
और शैतान को याद दिलाया:
"मुझसे दूर रहो, शैतान! क्योंकि यह लिखा हुआ है: अपने स्वामी ईश्वर की पूजा करो, और केवल उसकी सेवा करो।" (मत्ती 4:10)
अंत में, मुहम्मद का संदेश, मक्का की पहाड़ियों में जीसस के संदेश गूंजने के लगभग 600 साल बाद:
"और तुम्हारा ईश्वर ही एक ईश्वर है: उसके अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं…" (क़ुरआन 2:163)
उन सबने स्पष्ट कहा:
"…ईश्वर को पूजो! उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं…" (क़ुरआन 7:59, 7:65, 7:73, 7:85; 11:50, 11:61, 11:84; 23:23)
पूजा क्या है?
इस्लाम में पूजा हर वह कार्य, विश्वास, वक्तव्य, या हृदय का भाव है जिसे ईश्वर स्वीकृति और प्यार देता है; हर वह बात जो किसी व्यक्ति को अपने सृष्टा के और पास ले जाती है। इसमे सम्मिलित हैं 'बाह्य' पूजा जैसे दैनिक पूजा की रीतियाँ, व्रत, दान, और तीर्थयात्रा साथ ही 'आंतरिक' पूजा जैसे विश्वास, श्रद्धा, प्रशंसा, प्रेम, आभार, और भरोसे के छः प्रावधानों में आस्था। ईश्वर को शरीर, आत्मा और हृदय से पूजे जाने का अधिकार है, और यह पूजा तब तक अधूरी रहती है जब तक कि इसमें ये चार अनिवार्य तत्व न हों: ईश्वर के प्रति आदरसूचक भय, दिव्य प्रेम और प्रशंसा, दिव्य पुरुस्कार की आशा, और परम विनम्रता।
पूजा का सबसे बड़ा काम है प्रार्थना करना, और मदद के लिये उस दिव्य हस्ती को याद करना। इस्लाम में निर्दिष्ट है कि प्रार्थना केवल ईश्वर की होनी चाहिए। वह हर मनुष्य के भाग्य का विधाता है, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने और आपदा को दूर करने में सक्षम है। इस्लाम में, ईश्वर का अपने लिये पूजा करवाने का अधिकार सुरक्षित है:
"और ईश्वर के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है। फिर यदि, आप ऐसा करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जायेंगे।" (क़ुरआन 10:106)
किसी और को अपनी पूजा का एक भाग देना जो अनिवार्यतः केवल ईश्वर के लिये है, वह - पैगंबरों, फरिश्तों, जीसस, मैरी, मूर्तियों, या प्रकृति को, देना शिर्क कहलाता है और इस्लाम में यह सबसे बड़ा पाप माना जाता है। शिर्क ही एक ऐसा अक्षम्य पाप है जिसका अगर पश्चाताप न किया जाए तो वह सृष्टि के मूल उद्देश्य को नकार देता है।
इस्लाम में ईश्वर को प्रकाशित इस्लामिक पाठों में मिलने वाले उसके सबसे सुंदर नामों और गुणों से जाना जाता है, उनके ज़ाहिर अर्थों को बदला या बिगाड़ा नहीं जा सकता, चित्र नहीं बनाया जा सकता, या उनकी मानव आकार में कल्पना नहीं की जा सकती।
"और सबसे सुंदर नाम ईश्वर के हैं, इसलिए उसको उन्हीं नामों से पुकारो…" (क़ुरआन 7:180)
इसलिए, यह अनुचित होगा कि पहला कारक, लेखक, पदार्थ, शुद्ध अहंकार, अंतिम, विशुद्ध विचार, तार्किक धारणा, अज्ञात, चेतनाहीन, अहंकार, विचार, या बड़ी हस्ती को पवित्र नामों की तरह प्रयोग करें। उनमें तनिक भी सौन्दर्य नहीं है और ईश्वर ने स्वयं का इस तरह वर्णन नहीं किया है। बल्कि, ईश्वर के नाम इंगित करते हैं उसके राजसी सौन्दर्य और संपूर्णता को। ईश्वर भूलता, सोता, या थकता नहीं है। वह अन्यायी नहीं है, और उसके कोई पुत्र, माता, पिता, भ्राता, सहयोगी, या सहायक नहीं हैं। वह पैदा नहीं हुआ, और जन्म नहीं देता। उसे किसी की जरूरत नहीं क्योंकि वह सम्पूर्ण है। उसे हमारे दुख दर्द "समझने" के लिये मनुष्य रूप लेने की जरूरत नहीं। ईश्वर सर्वशक्तिमान (अल-कवी), अतुलनीय (अल-'अहद), पश्चाताप स्वीकार करने वाला (अल-तव्वाब), दयालु (अर-रहीम), सदा-जीवी (अल-हय्य), सबको थामने वाला (अल- कय्यूम), सर्व-ज्ञाता (अल-अलीम), सब सुनने वाला (अस-समी’), सर्व-दृष्टा (अल-बसीर), क्षमादाता (अल-‘अफ़ुव), मददगार (अल-नसीर), और आरोग्यसाधक (अल-शाफ़ी) है।
दो सबसे अधिक पुकारे जाने वाले नाम हैं "दयालु" और "कृपालु।" मुस्लिम धर्म शास्त्र में एक अध्याय को छोड़कर सब अध्याय इस वाक्य से शुरू होते हैं, "ईश्वर का नाम लेकर, जो सबसे कृपालु, सबसे दयालु है।" हम कह सकते हैं, यह वाक्य मुस्लिमों द्वारा कहीं अधिक कहा जाता है, और इतना ईसाइयों की प्रार्थनाओं में पिता, बेटा, और पवित्र आत्मा का वाक्य नहीं सुना जाता। मुस्लिम ईश्वर का नाम लेकर शुरू करते हैं और खाते, पीते, पत्र लिखते समय, या कोई भी महत्वपूर्ण काम करते समय ईश्वर की दया और कृपा को याद करते हैं।
मनुष्य और ईश्वर के संबंधों में क्षमा एक महत्वपूर्ण पहलू है। मनुष्य कमज़ोर और पाप में आसानी से पड़ जाने वाले समझे जाते हैं, लेकिन ईश्वर अपनी कोमल दया के कारण क्षमा करने के लिये तैयार रहते हैं। पैगंबर मुहम्मद ने कहा है:
"ईश्वर की दया उसके क्रोध से बहुत बड़ी है।" (सहीह अल-बुखारी )
"सबसे दयालु" और "सबसे कृपालु," जैसे दिव्य नामों के साथ, "क्षमादाता" (अल-गफ़ुर), "अक्सर क्षमा करने वाला" (अल -गफ़्फ़ार), "पश्चाताप स्वीकार करने वाला" (अल-तव्वाब) और "क्षमादाता" (अल-‘अफ़ुव) जैसे नाम मुस्लिम प्रार्थनाओं में अधिक प्रयुक्त होते हैं।
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