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अल्लाह मुझे इस उद्देश्य के लिए क़तर ले आए थे कि मैं अपनी खोज को पूरा कर सकूं और अपने जीवन के बाक़ी दिनों में पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) के तरीकों पर चलकर ईश्वर की आराधना कर सकूं।
अल्लाह के रास्ते हमारे चुने रास्ते से अलग हैं, क्योंकि वह सब कुछ जानते हैं। असल में, यहां क़तर में मेरे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी, मैं पीछे मुड़कर देखती हूं और देखती हूं कि ईश्वर ने कितने शानदार तरीक़े से उस मार्ग को चुना जो मुझे उसके पास ले गया।
2009 में, जिस कंपनी के साथ मैं क़तर आई थी, उससे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और उसने लोगों को निकालना शुरू कर दिया और वे लोग अन्य नौकरियों की तलाश करने के विकल्प देने लगे। मैं उस कंपनी में कैसे पहुंची, जहां मैं अभी काम कर रही हूं, यह भी एक शानदार उपहार था जो अल्लाह ने मुझे दिया था। मैं अपनी पिछली कंपनी से वर्तमान कंपनी में कैसे आई, यह सबकुछ काफी अचानक हुआ था। जिस संस्थान में मैं काम कर रही हूं वह शरिया (इस्लामी कानून) द्वारा शासित एक इस्लामी संस्थान है और जिस विभाग से मैं हूं, उसने मुझे अपने सपनों की नौकरी - कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन में काम करने का मौका दिया था। चूंकि मैं न्यूज़लेटर्स और मार्केटिंग टूल्स की तैयारी में बेहतर हूं, मुझे शरिया के मार्गदर्शन में निहित कॉर्पोरेट मूल्यों के संपर्क में रहना पड़ा, जिससे मुझे इस्लाम के बारे में गहराई से जानकारी मिली। उस समय, मैंने पाया कि मैं जो कर रही हूं उसमें मुझे आनंद आ रहा है और मैं बस अपने हाथ लगने वाली हर चीज़ को पढ़ रही थी।
2010 के शुरु में, मैं एक फिलिपिनो मुसलमान से मिली। हमारे बीच धर्म को लेकर कभी कोई चर्चा नहीं हुई थी। वह जानता था कि मैं अपनी तसबीह और नोवेना पुस्तिकाओं के साथ कितना प्रार्थनापूर्ण थी। उन्होंने बताया कि उनके परिवार में मुस्लिम और ईसाई भी हैं। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मुझे इसके बारे में बिल्कुल भी असहज महसूस नहीं करना चाहिए। मैंने उनके अंदर ऐसी ख़सियातों को महसूस किया, जिनकी मुझे तलाश थी। रिश्ते के बारे में उनकी सोंच मेरे जैसी ही थी। इसलिए, धर्म का विषय कभी हमारे बीच कोई मुद्दा नहीं रहा और हम दोनों अपने-अपने धर्मों का सम्मान करते थे।
एक बार, मैं अपनी कंपनी के लिए कुछ चीज़ें खरीदने के लिए सुलेख कला के प्रदर्शन के दौरान अपने मालिक के साथ फ़नार (कतर इस्लामी सांस्कृतिक केंद्र) गई थी। मुझे "द आइडियल मुस्लिमा" नाम की एक किताब मिली और किताब मिलने के तीन महीने बाद मैंने इसे पढ़ना शुरू किया, मेरे मंगेतर उस समय क़तर में नहीं थे। मुझे लगा कि क़ुरआन की आयतें मुझसे सीधे-सीधे बात कर रही हैं। जैसे ही मैंने द आइडियल मुस्लिमा (मुस्लिम महिला) के गुणों को पढ़ा, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरा जीवन जीने का तरीका इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार है। फिर, मुझे तागालोग में क़ुरआन की एक प्रतिलिपि मिली और मेरे दिल में एक खास तरह की जबरदस्त शांति महसूस हुई जिसके वजह से मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने खुद से कहा, समय आने पर मुझे इसे समझना होगा। मैंने शरिया विभाग से और अपने अच्छे सहयोगियों से मार्गदर्शन मांगा कि मुझे किस पठन सामग्री को पढ़ना चाहिए। मैं इंटरनेट पर सर्च करती और वह सब कुछ पढ़ती जो मैं कर सकती थी। एक दिन मैं रुकी और मैंने ज्ञान की तलाश करना बंद कर दिया क्योंकि जब मैंने अपने मंगेतर को देखा, जो अभी-अभी ही फिलीपींस से वापस आए थे, तब मैं कुछ भी हासिल नहीं करना चाहती थी। हालांकि उन्होंने कभी भी मेरे धर्म पर सवाल नहीं उठाया, मैंने खुद से कहा, मुझे यह विचार करना था कि क्या मैं सिर्फ अपने जीवन में उनकी उपस्थिति से प्रभावित हो रही हूं या क्या इस्लाम को अपनाना मेरी अपनी पसंद है... मेरी दिल और मेरी आत्मा की गहराई से ये आवाज़ आ रही है।
उस समय जब मैंने आगे की खोज बंद कर दी थी, तब मैं भी संकट के दौर से गुज़र रही थी। समस्याएं बढ़ती गई और मैं असमंजस में थी कि पूजा कैसे की जाए। क्या मुझे तस्बीह और भक्ति वाली इबादत करनी चाहिए या क्या मुझे नमाज़ (मुसलमानों द्वारा की जाने वाली इबादत) करनी चाहिए, जिसे पढ़ने के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। महीनों तक मैं अनिश्चित स्थिति में थी, एक रात को मैं उठी और मैंने ईश्वर की ओर रुख किया और कहा - "हे ईश्वर, मैं भ्रमित हूं। अब मुझे नहीं पता कि मुझे कैसे प्रार्थना करनी चाहिए। मेरे दिल को समझें। मैं खुद को आपके अधीन करती हूं!" उसके बाद, मुझे एक विशेष शांति का अनुभव हुआ।
ईश्वर की कृपा शुरू हुई। मेरे मंगेतर योजना से पहले फिलीपींस चले गए। ईश्वर ने मुझे वह समय दिया जो मुझे मेरी समझ को बढ़ाने के लिए चाहिए थी।
मुझे उम्मीद नहीं थी कि जिस दिन जापान में एक बड़ी सुनामी आएगी, यही वह दिन होगा जब मैं अपनी शाहदह (मुस्लिम बनने के लिए आस्था की गवाही) क़बूल करूंगी। मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिल में बहुत सुकून है। मैं बुनियादी इस्लाम की कक्षाओं में भाग लेने के दृढ़ विश्वास के साथ फनार गई थी। इसका फैसला मैंने तब किया था जब मैं अंततः अपने लिए अपने मने में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम थी। पहला, अगर मेरा मंगेतर और मैं एक साथ नहीं रहेंगे, तो क्या मैं मुसलमान होने के सफ़र को कायम रख पाऊंगी? जब मैं मर जाऊंगी, तो मेरा परिवार मेरे पार्थिव शरीर को कैसे दफ़नाएगा? और फिर, मैंने अपने मन में अपनी मुस्लिम महिला सहयोगियों को देखा और मुझे एक ख़ास सामुदायिक भावना का अनुभव हुआ। तब मैंने अपने आप से कहा, भले ही मैं एक व्यक्ति को खो दूं, लेकिन मुझे और लोग मिलेंगे। दूसरा, मुस्लिम पुरुषों को चार औरतों से शादी करने की अनुमति क्यों है? क्या वे नहीं जानते कि एक औरत के लिए दूसरी औरत को तरजीह देना कितना दर्दनाक होता है? यह प्रश्न कई महीनों तक अनुत्तरित रहा, उस दिन तक जब मैं फनार जाने की तैयारी कर रही थी। दरअसल, यह प्रश्न मुझे हमेशा इस्लाम के बारे में पढ़ी हुई बातों को पूरी तरह से स्वीकार करने से रोकता था और मुझे उम्मीद थी कि एक बार मुझे फ़नार में कक्षाओं में पढ़ने का मौका मिल जाने पर इसका जवाब भी मिल गया। अंत में, उस सुबह जब मैं फ़नार जाने के लिए तैयार हो रही थी, मेरे मन में प्रश्नों का एक और दौर चला - क्या ईर्ष्या या ईर्ष्या की भावना मुझे अल्लाह के रास्ते से भटका सकती है? क्या कोई ऐसी सांसारिक बात है जो मुझे अल्लाह को जानने से रोकेगी? मैंने खुद को जवाब नहीं दिया। इसके बजाय, मैंने जाने के लिए खुद को तैयार करने में जल्दबाजी की। मेरा यह पहल ही सभी प्रश्नों का उत्तर था।
फ़नार पहुंचने पर, मुझे इस्लाम के दो उपदेशक- बहन ज़ारा और बहन मरियम के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत करने का मौका मिला। मेरे दिल की तड़प बाहर आने लगी। बहन मरियम ने कहा कि मुझे लगता है कि मैं तैयार हूं। जब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं ईमान क़बूल करना चाहूंगी, तो मैंने सिर्फ यह कहा कि - क्या वहां कोई ऐसा होगा जो मुझे सही रास्ता दिखा सकता है? फिर से, मुझे उसी ख़ास भावना का अनुभव हुआ - यह हां या ना को लेकर नहीं था, बल्कि यह किसी ऐसे व्यक्ति की उपलब्धता के बारे में था जो इसे करने में मेरी मदद कर सकता था।
शाहदाह क़बूल करने के बाद मेरी आंखों से आंसू छलक पड़े। फिर बहन मरियम ने मुझे गले लगाया और कहा कि मैं पहले से ही एक मुसलमान हूं, तो मैंने अपनी नम आखों के साथ उनका धन्यवाद दिया। मेरे ससुराल के लोगों ने एक मुस्लिम के रूप में मेरा ख़ुशी-ख़ुशी स्वागत किया और मैं इसके लिए अल्लाह को धन्यवाद देती हूं। हालांकि वे अभी भी धर्मनिष्ठ कैथोलिक हैं, मगर उनकी स्वीकृति, समर्थन और प्यार मुझे आगे बढ़ने में मदद करता है। जहां तक मेरे मंगेतर की बात है, तो इस्लाम क़बूल करने के कुछ ही मिनट बाद मेरी तरफ से यह संदेश पाकर वे हैरान रह गए। उन्हें मुझसे ऐसी खबर की उम्मीद नहीं थी।
इस्लाम के प्रति मेरा झुकाव भीषण सुनामी के बाद निखर कर आया था। इसलिए मैं इसे अल्लाह की एक निशानी के रूप में देखती हूं कि अल्लाह ने इसके ज़रिए मुझे पूरी तरह से पाक कर दिया और मुझे मेरे पापों से मुक्त कर दिया। मेरे साथ क्या हुआ होता अगर मैंने अल्लाह के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया होता? मैं आज के दिन कहां होती?
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