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ईश्वर में विश्वास करने के इस्लाम में चार पहलू हैं:
(I) ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास।
(II) ईश्वर ही सर्वोच्च स्वामी है।
(III) ईश्वर ही पूजा का अधिकारी है और कोई नहीं।
(IV) ईश्वर को उसके सबसे सुंदर नामों और गुणों से जाना जाता है।
ईश्वर के अस्तित्व को किसी वैज्ञानिक, गणितीय, या दार्शनिक तर्कों के साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। उसकी हस्ती कोई 'आविष्कार' नहीं है जिसे किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया या गणितीय प्रमेय द्वारा सिद्ध करना पड़े। सरल ढंग से कहें, सामान्य बुद्धि से ही ईश्वर के अस्तित्व को समझा जा सकता है। जिस तरह हम एक जहाज से जहाज निर्माता के बारे में जान जाते हैं, उसी तरह ब्रह्मांड से हम उसके सृष्टिकर्ता को जान सकते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को प्रार्थनाओं से मिलने वाले प्रतिसाद से, पैगंबरों के चमत्कारों से और सभी ज्ञात धर्म शास्त्रों की शिक्षाओं से जाना जाता है।
इस्लाम में, मनुष्य को मूल रूप से पापी प्राणी के रूप में नहीं देखा जाता जिसके कारण उस मूल पाप को सुधारने के लिये स्वर्ग से संदेश दिया जाए, बल्कि एक ऐसा प्राणी होता है जो अपने मौलिक स्वभाव को बरकरार रखता है (अल-फ़ितर), और उसकी आत्मा पर एक ऐसी छाप होती है जो उपेक्षा की गहरी परतों के नीचे दबी रहती है। मनुष्य जन्म से पापी नहीं होता, लेकिन भूल जाने की प्रवृत्ति रखता है जैसा ईश्वर ने कहा है:
"…क्या मैं तुम्हारा पालनहार नहीं हूँ? सबने कहाः क्यों नहीं? हम (इसके) साक्षी हैं..." (क़ुरआन 7:172)
इस आयत में, "उन्होंने" शब्द सभी मनुष्यों के लिये प्रयुक्त हुआ है, स्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिये। ‘हाँ’ कहना हमारी ब्रह्मांडीय अवस्था में केवल एक ईश्वर होने की हमारी स्वीकृति की पुष्टि करता है। इस्लामिक सिद्धांत कहता है कि स्त्री और पुरुष दोनों अपनी इस ‘हाँ’ की गूंज को अपनी आत्मा की गहराइयों में रखते हैं। इस्लाम मनुष्य के उस मौलिक स्वभाव की ओर इशारा करता है, जिसके कारण इस पृथ्वी पर आने से पहले उसने ‘हाँ’ कहा था। इस बात का ज्ञान कि इस ब्रह्मांड का कोई रचनाकार है यह इस्लाम का मूल है और इसलिए इसे किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय से संलग्न और धर्म के स्नायवीय अनुसंधान के विषय में अग्रणी एंड्रयू न्यूबर्ग और यूजीन डी'एक्यूली जैसे दोनों वैज्ञानिकों का कहना है, "हमारे तार ईश्वर से जुड़े हुए हैं।"[1]
पवित्र क़ुरआन अलंकारिक रूप से पूछती है:
"…क्या उस ईश्वर के बारे में कोई शंका हो सकती है, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी की रचना की है?..." (क़ुरआन 14:10)
हम पूछ सकते हैं, ‘अगर ईश्वर में विश्वास नैसर्गिक है, तो कुछ लोगों में यह विश्वास क्यों नहीं होता?’ उत्तर बहुत सरल है। प्रत्येक मनुष्य में एक सृष्टिकर्ता के होने का आंतरिक विश्वास होता है, पर यह विश्वास किसी शिक्षा या व्यक्तिगत विश्लेषात्मक सोच का नतीजा नहीं होता। समय के साथ, बाहरी प्रभाव इस आंतरिक विश्वास पर असर करते हैं और व्यक्ति को भ्रमित कर देते हैं। इस तरह, हमारा वातावरण और पालन पोषण हमारे मौलिक स्वभाव पर पर्दा डाल कर उसे सत्य से दूर कर देता है। इस्लाम के पैगंबर ने, ईश्वर की दया और आशीर्वाद उन पर बना रहे, कहा:
"हर बच्चा फ़ितराह (ईश्वर में नैसर्गिक विश्वास) की अवस्था में पैदा होता है, और फिर उसके माता पिता उसे यहूदी, ईसाई, या मागियन बना देते हैं।" (सहीह मुस्लिम)
यह परदे अक्सर उठ जाया करते हैं जब किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक संकट से सामना होता है और वह असहाय और कमज़ोर अनुभव करता है।
केवल ईश्वर ही स्वर्ग और पृथ्वी का स्वामी है। वह इस भौतिक सृष्टि का स्वामी है और मनुष्य जीवन का विधिपृदाता है। वह इस भौतिक जगत का स्वामी है और मनुष्य के जीवन का अधिष्ठाता है। ईश्वर प्रत्येक स्त्री, पुरुष, और बच्चे का स्वामी है। एतिहासिक रूप से, कुछ ही लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया है, जिसका अर्थ है युगों युगों से लोगों ने, अधिकतर समय, एक ईश्वर में विश्वास किया है, एक सर्वोच्च हस्ती, एक पारलौकिक सृष्टिकर्ता में। ईश्वर ही स्वामी है इस तथ्य के निम्नलिखित अर्थ हैं:
पहला, ईश्वर इस भौतिक जगत के एकमात्र स्वामी और शासक हैं। स्वामी का अर्थ है वह सृष्टिकर्ता है, नियंत्रक है, और स्वर्ग और पृथ्वी के साम्राज्य के मालिक हैं; यह सब केवल उसका है। उसने ही शून्य में से जीवन बनाया है, और सारी सृष्टि अपने सरंक्षण और निरन्तरता के लिये उस पर निर्भर करती है। ऐसा नहीं है कि, उसने ब्रह्मांड बनाकर उसे निश्चित नियमों के अनुसार अपने आप चलते रहने के लिये छोड़ दिया, और उसके बाद उसमें कोई रुचि लेना बंद कर दिया। एक जीवंत ईश्वर की शक्ति सभी प्राणियों को जीवित रहने के लिये पल पल आवश्यक है। सृष्टि में उसके अतिरिक्त और कोई स्वामी नहीं है।
"कहो (ओ मुहम्मद): ‘स्वर्ग और पृथ्वी से कौन तुम्हारे लिये आवश्यक प्रबंध करता है? और कौन मृतकों से जीवित और जीवितों से मृतक निकालता है? और कौन सब मामलों को निपटाता है?’ वे कहेंगे: ‘ईश्वर।’ कहो: ‘तब क्या तुम ईश्वर के दंड से (उसके सामने प्रतिद्वंदी खड़े करने के लिये) भयभीत नहीं होगे?" (क़ुरआन 10:31)
वह सदा शासन करने वाला और रक्षक है, प्रेम करने वाला ईश्वर, बुद्धि से भरपूर। उसके निर्णयों को कोई नहीं बदल सकता। फ़रिश्ते, पैगंबर, मनुष्य, और पशु एवं वनस्पति जगत उसके नियंत्रण में हैं।
प्रकृति में सौन्दर्य। सेंट जॉर्जेस, क्यूबेक के निकट शौडीयर नदी के ग्रैंड फॉल्स। (एपी फोटो/रॉबर्ट एफ़. बुकाटी)
दूसरा, ईश्वर ही मनुष्य के सभी मामलों का शासक है। ईश्वर सर्वोच्च विधिपृदाता है,[2] परम न्यायाधीश है, विधायक है, और वह सही को गलत से अलग करता है। जिस तरह यह भौतिक संसार अपने स्वामी के सम्मुख समर्पण करता है, मनुष्यों को भी अपने स्वामी की नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं के सामने पूर्ण समर्पण करना चाहिए, वही स्वामी जो सही को गलत से अलग करता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर के पास ही विधान बनाने की, पूजा के कर्तव्य निर्धारित करने की, नैतिक मानदंड निर्धारित करने की, और मानव के परस्पर संवाद और व्यवहार के मानकों को निर्धारण करने की सत्ता है। उसका आदेश है:
"…सुन लो! वही उत्पत्तिकार है और वही शासक है। वही अल्लाह अति शुभ संसार का पालनहार है।" (क़ुरआन 7:54)
[1] "व्हाई गॉड वोन्ट गो अवे"। साइंस एंड द बायोलॉजी ऑफ़ बिलीफ़, पृष्ठ 107।
[2] ईश्वर का अस्तित्व एक सर्वोच्च विधिपृदाता के अस्तित्व से सिद्ध हो जाता है जिसे पश्चिम के धर्म-शास्त्रियों ने 'नीतिपरक' तर्क कहा है।
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